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पंचसंग्रह : ६
-: जिनको क्रमश: छाद्मस्थिक और कैवलिक वीर्य कहते हैं। तथा इन दोनों के भी 'अभिसंधिय अणभिसंधिय'-अभिसंधिज और अनभिसंधिज इस तरह दो-दो प्रकार हैं। उनके लक्षण इस प्रकार हैं. अभिसंधिज-बुद्धिपूर्वक-विचारपूर्वक चलने, दौड़ने, कूदने आदि क्रियाओं में प्रवर्तमान वीर्य को अभिसंधिज वीर्य कहते हैं।
अनभिसंधिज-भुक्त आहार का सहजरूप से सप्त धातु, मलादि रूप से रूपान्तरित होने एवं मनोलब्धि रहित एकेन्द्रिय आदि जीवों की आहार ग्रहण आदि क्रियाओं में जो प्रवर्तित होता है वह अनभिसंधिज वीर्य कहलाता है।
छाद्मस्थिक और कैवलिक यह दोनों प्रकार का वीर्य अकषायी और सलेश्य होता है। छद्मस्थ सम्बन्धी अकषायी सलेश्य वीर्य उपशान्तमोह और क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती जीवों के और कैवलिककेवलज्ञानी सम्बन्धी अकषायी सलेश्य वीर्य सयोगिकेवलीगुणस्थानवर्ती जीवों के पाया जाता है ।
छाद्मस्थिक वीर्य सकषायी और अकषायी इस प्रकार दो तरह का है । छद्मस्थ जीव दो प्रकार के हैं—सकषायी और अकषायी। दसवें गुणस्थान तक कषायों का उदय रहने से आदि के दस गुणस्थानवर्ती जीव सकषायी और उससे ऊपर ग्यारहवें बारहवें गुणस्थान में कषायों का उदय न होने से अकषायी कहलाते हैं। इनको छद्मस्थ कहने का कारण यह है कि मोहनीय के अतिरिक्त शेष ज्ञानावरणादि कर्मों का उदय है। ___ सकषायी छाद्मस्थिक वीर्य दसवें सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान तक के सभी संसारी जीवों के होता है और अकषायी वीर्य के लिये ऊपर कहा जा चुका है कि वह ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवी जीवों में पाया जाता है तथा जो अलेश्य कैवलिक वीर्य है। वह अलेश्य