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बंधनकरण - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २, ३
होइ कसाइवि पढमं इयरमलेसीवि जं सलेसं तु । गहण परिणामकंदणरूवं तं जोगओ तिविहं ॥३॥
शब्दार्थ - आवरण – अन्तरायकर्म, देससव्वक्खयेण – देशत: ( एक देश से) और सर्वतः (पूर्ण रूप से) क्षय होने से, दुहेह—यहाँ दो प्रकार का, वीरियं – वीर्य, होई— होता है, अभिसंधि - अभिसंधिज, अणभिसंधिय-अनभिसंधिज, अकसायसलेसि — अकषायी और सलेश्य, उभयंपि- उभय (दोनों) (छाद्मस्थिक और कैलिक) भी ।
होइ --- होता है, कसाइवि –— कषायी भी, पढमं - पहला (छाद्मस्थिक), इयरमलेसीवि - इतर ( कैवलिक वीर्य) अलेश्य भी, जं—जो, सलेसं—सलेश्य, तु — और, गहणपरिणामफंदणरूवं — ग्रहण, परिणमन और स्पन्दन रूप, तं - वह, जोगओ - योग से, तिविहं - तीन प्रकार का ।
गाथार्थ — अन्तरायकर्म (वीर्यान्तरायकर्म) के देश क्षय और सर्वक्षय से वीर्य के दो प्रकार हैं, और उन दोनों के भी अभिसंधिज और अनभिसंधिज ऐसे दो भेद होते हैं तथा उभय छाद्मस्थिक और कैलिक ये दोनों अकषायी और सलेश्य होते हैं तथा पहला (छादुमस्थिक) वीर्य कषायी भी है और इतर कैवलिक वीर्य अलेश्य भी है । सलेश्य वीर्य ग्रहण, परिणमन और स्पन्दन रूप है और योग से तीन प्रकार का है ।
विशेषार्थ -- इन दो गाथाओं में वीर्य के स्वरूप की विस्तृत व्याख्या की है ।
सर्वप्रथम वीर्यं के प्रादुर्भाव होने के कारणों को स्पष्ट करते हुए कहा है- वीर्यान्तराय कर्म के देश -आंशिक एवं सर्व-संपूर्ण क्षय से जन्य होने के कारण वीर्य के दो प्रकार हैं- देश क्षयज और सर्वक्षयज'आवरण देससव्वक्खयेण दुहेह वीरियं होइ ।' वीर्यान्तराय कर्म के देशक्षय से उत्पन्न वीर्य छद्मस्थों को एवं सम्पूर्ण क्षय से उत्पन्न वीर्यं केवली भगवन्तों के होता है ।