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________________ पंचसंग्रह : ६ स्थिति और रस वृद्धिंगत हो, उसे उद्वर्तनाकरण और जिस वीर्य - व्यापार द्वारा स्थिति एवं रस का ह्रास उसे अपवर्तनाकरण कहते हैं । ५. उदीरणाकरण --- जो कर्म दलिक उदय प्राप्त नहीं है अर्थात् जो कर्मदलिक अपने-अपने विपाक का वेदन कराने, फल देने की ओर उन्मुख नहीं हुए हैं, उन कर्म दलिकों का जिस प्रयत्न द्वारा उदयावलिका में प्रवेश कराके फलोन्मुख किया जाता है, उसे उदीरणाकरण कहते हैं । ६. उपशमनाकरण - जिस वीर्यव्यापार के द्वारा कर्मों को उपशमित किया जाता है, शान्त किया जाता है अर्थात् उदय, उदीरणा, निधत्त एवं निकाचना करणों के अयोग्य किया जाता है, वह उपशमनाकरण कहलाता है । ७. निर्धात्तिकरण - जिस प्रयत्न - वीर्यव्यापार द्वारा कर्म दलिकों को उद्वर्तना, अपवर्तना के अतिरिक्त शेष करणों के अयोग्य स्थिति में स्थापित किया जाता है, अर्थात् कर्मों को ऐसी स्थिति में स्थापित कर दिया जाये कि उक्त दो करणों के अलावा अन्य करण प्रवर्तित न हो, उसे निधत्तिकरण कहते हैं । ८. निकाचनाकरण - जिस प्रयत्न द्वारा कर्मों को ऐसी स्थिति में स्थापित कर दिया जाये कि जिसमें अन्य कोई भी करण प्रवर्तित न हो सके । कर्म का बंध जिस रूप में हुआ है, उसके फल को उसी रूप में अवश्य भोगा जाये, कर्म उसी रूप में अपना विपाक वेदन कराये, उसे निकाचनाकरण कहते हैं । 1 इस प्रकार से करणों के नाम एवं उनके लक्षणों को बतलाने के बाद करण वीर्यविशेष रूप होने से ग्रन्थकार अब वीर्य के स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं । आवरण देस सव्वक्खयेण दुह वीरियं होइ । अभिसंधिय अभिसंधिय अकसाय सलेसि उभयंपि ॥ २ ॥
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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