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बंधनकरण - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १
की सीमा का निर्देश करते हुए कहा है- 'वोच्छं करणाणि बंधणाईणि' - बंधन आदि करणों की व्याख्या करूंगा और बंधन आदि करणों की व्याख्या इसलिये करूंगा कि 'संक्रमकरणं बहुसो अइदेसियं उदय संतं' कर्मों की उदय एवं सत्ता अवस्थाओं का वर्णन करने के प्रसंग में बारंबार संक्रम करण का उल्लेख है, इसलिये संक्रम का स्वरूप बताना आवश्यक है तथा संक्रम तभी सम्भव है जब कर्मों का आत्मा के साथ बंध हो । अतएव बंध और उसके साहचर्य से तत्सदृश अन्य संक्रम आदि करणों की व्याख्या करने का निश्चय किया है ।
पूर्वोक्त प्रकार से गाथोक्त आशय को स्पष्ट करने के पश्चात् उद्देश्यानुरूप निर्देश करने के न्यायानुसार अब करणों के नामों और उनके लक्षणों का कथन करते हैं ।
करणों के नाम व उनके लक्षण
आत्मा के परिणामविशेष अथवा वीर्यविशेष को करण कहते हैं । वे करण आठ हैं । जिनके नाम इस प्रकार हैं
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१. बंधन, २. संक्रमण, ३. उद्वर्तना ४ अपवर्तना, ५. उदीरणा, ६. उपशमना, ७, निधत्ति, ८. निकाचना |
१. बंधनकरण - जिस वीर्यविशेष से ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार के कर्मों का बंध होता है, उसे बंधनकरण कहते हैं ।
२. संक्रमणकरण — जिस वीर्यव्यापार द्वारा अन्य कर्म रूप में रहे हुए प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश अन्य कर्म के रूप में बदल जाते हैं । कर्म से कर्मान्तर में परिवर्तित हो जाते हैं, वह संक्रमण कहलाता है ।
३-४. उद्वर्तना-अपवर्तनाकरण - यद्यपि ये दोनों भी अन्य कर्म का कर्मान्तर में परिवर्तन कराने में कारण होने से संक्रमण के ही भेद हैं, लेकिन संक्रमणकरण से इनको पृथक् मानने का कारण यह है कि दोनों का विषय स्थिति और रस हैं । अतएव जिस प्रयत्न द्वारा