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पंचसंग्रह : ६ जाती है किन्तु संसार के कारणभूत सांपरायिक बंध को ही बंध के · रूप में गिना जाता है। बंधनकरण में मुख्य रूप से इसी का विचार किया है।
ग्रंथकार आचार्य कर्मप्रकृतिविभाग को प्रारंभ करने की आदि में महापुरुषों को नमस्कार करके पूर्व विभाग के साथ वक्ष्यमाण का संबंध प्रतिपादित करते हुए कहते हैं :
नमिऊण सुयहराणं बोच्छं करणाणि बंधणाईणि ।
संकमकरणं बहुसो अइदेसियं उदय संते जं ॥१॥ शब्दार्थ-नमिऊण-नमस्कार करके, सुयहराणं-श्रुतधरों को, बोच्छंकहूंगा, करणाणि-करणों को, बन्धणाईणि-बंधनादि, संकमकरणं--संक्रम करण का, बहुसो-प्रायः बहुलता से, अइदेसियं-अतिदेश किया है, उदयउदय में, संते-सत्ता में, जं-क्योंकि ।
गाथार्थ---श्रुतधरों को नमस्कार करके मैं बंधनादि करणों के स्वरूप को कहूँगा। क्योंकि उदय, सत्ता के विचार प्रसंग में प्रायः अनेक बार संक्रम करण का अतिदेश-उल्लेख किया है।
विवेचन-ग्रंथकार आचार्य ने गाथा में मंगलाचरण के रूप में श्रु तधरों को नमस्कार करते हुए बंधनादि आठ करणों की व्याख्या करने के कारण को बताया है।
सामान्य से तो 'नमिऊण सुयहराणं' पद मंगलाचरणात्मक है कि सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवन्तों, चतुर्दश पूर्वधारी श्रुतकेवलियों को नमस्कार हो, लेकिन विशेष रूप में यह स्पष्ट किया है कि ग्रन्थ के वर्ण्य विषय के लिए श्रु तधरों की वाणी प्रमाणभूत है । मुमुक्षुजनों को उसी वाणी का बोध कराने के लिये मैं तत्पर हुआ हूँ। . __यद्यपि श्र तधरों ने तो अनेक विषयों का वर्णन किया है। लेकिन उन सभी का वर्णन तो एक साथ नहीं किया जा सकता है और न यह सम्भव भी है। अतः ग्रंथकार आचार्य ने अपने ग्रंथ के अभिधेय