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६ : बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार
योगोपयोग मार्गणा आदि पाँच अधिकारों का विवेचन करने के पश्चात् अब तत्सम्बन्धित कर्म प्रकृति विभाग को प्रस्तुत करते हैं। इस विभाग में बंधन आदि आठ करणों (आत्मिक परिणाम विशेषों) का विशद् निरूपण किया जायेगा।
कर्म के स्वरूप को समझ लेने मात्र से ही कर्म सिद्धान्त का सर्वांगीण ज्ञान नहीं हो जाता है, किन्तु उसके साथ यह जानना भी आवश्यक है कि जीव और कर्म का संयोग किस कारण से होता है ? कर्म के दलिक किस तरह बंधते और उदय में आते हैं ? किन कारणों से कर्मों का बंध दृढ़ और शिथिल होता है ? आत्मा की आंतरिक शुभाशुभ भावना एवं देह जनित बाह्य शुभाशुभ क्रिया का कर्मवंधादि के विषय में क्या कैसा योगदान है ? शुभाशुभ कर्म और उनके रस की तीव्रता-मंदता के कारण आत्मा कैसी सम-विषम दशाओं का अनुभव करती है आदि । एतद् विषयक प्रत्येक प्रश्न का समाधान बंधन आदि आठ करणों के स्वरूप को समझने पर हो सकता है ।
जीव के साथ कर्म का बंध अनादिकाल से होता आ रहा है और जब तक जीव संसारस्थ है, तब तक होता रहता है । लेकिन विशुद्धि के परम प्रकर्ष को प्राप्त संसारस्थ जीव के जो बंध होता है उसे असांपरायिक अर्थात् योगमात्र से होने वाला बंध कहते हैं । जैसे सूखे कपड़े अथवा दीवाल पर वायु से उड़कर आये रजकण तत्काल छूट जाते हैं उसी प्रकार मात्र योग द्वारा बांधा गया कर्म भी दूसरे समय में भोगा जाकर छूट जाता है। असांपरायिक बंध संसार का कारण न होने से कर्मबंध के प्रसंग में प्रायः उसकी विवक्षा नहीं की