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पंचसंग्रह : ६ जिससे छाद्मस्थिक अकषायी सलेश्य वीर्य ग्यारहवें, बारहवें (उपशान्तमोह क्षीणमोह) इन दो गुणस्थानवी जीवों में और छाद्मस्थिक सकषायी सलेश्य वीर्य दसवें गुणस्थान तक के जीवों में पाया जाता है। ... संलेश्य जीवों में वीर्य प्रवृत्ति दो रूपों में होती है, एक तो दौड़ना, चलना आदि निश्चित कार्यों को करने रूप प्रयत्नपूर्वक और दूसरी बिना प्रयत्न के होती रहती है। प्रयत्नपूर्वक होने वाली वीर्य प्रवृत्ति को अभिसंधिज और स्वयमेव होने वाली प्रवृत्ति को अनभिसंधिज कहते हैं । _इस प्रकार सामान्य से वीर्य के सम्बन्ध में निर्देश करने के बाद अब जिस वीर्य का यहाँ अधिकार है, अर्थात् जिस वीर्य के सम्बन्ध में विचार किया जाना है, उसी का निरूपण करते हैं। - 'जं सलेसं तु' अर्थात् जो सलेश्य वीर्य यहाँ अधिकृत है वह ग्रहण, परिणमन एवं स्पन्दन क्रिया रूप है- 'गहण परिणामफंदणरूवं' । उस वीर्य के द्वारा पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन और गमनागमनादि स्पन्दन रूप क्रियायें होती हैं। . जिसका आशय यह है--
अधिकृत सलेश्य वीर्यविशेष के द्वारा जीव सर्वप्रथम औदारिक आदि शरीरों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है और ग्रहण करके औदारिक आदि शरीररूप से परिणमित करता है। इसी प्रकार पहले श्वासोच्छ्वास, भाषा, मन के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है और ग्रहण करके उन्हें श्वासोच्छ्वास आदि रूप से परिणमित करता है । परिणमित करके उसके निसर्ग के हेतु रूप सामर्थ्य विशेष की सिद्धि के लिए उन्हीं पुद्गलों का अवलंबन करता है। इस प्रकार से ग्रहण, परिणमन और आलंबन का साधन होने से उसे ग्रहण आदि का हेतु कहा गया है।
१ वीर्य के भेद-प्रभेदों का सुगमता से बोध कराने वाला प्रारूप परिशिष्ट ' में देखिये।