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________________ परिशिष्ट ११ असत्कल्पना द्वारा अनुकृष्टि प्ररूपणा का स्पष्टीकरण अनुकृष्टि अर्थात् अनुकर्षण, अनुवर्तन । अनु–पश्चात् (पीछे से) कृष्टिकर्षण-खींचना, यानि पाश्चात्य स्थितिबन्धगत अनुभागस्थानों को आगेआगे के स्थितिबन्धस्थान में खींचना अनुकृष्टि कहलाती है । अमुक-अमुक प्रकृतियों की अनुकृष्टि एक समान होने से प्रकृतियों के इस प्रकार चार वर्ग बनाये हैं १ मतिज्ञानावरण आदि पैतालीस घाति, अशुभ वर्णादि नवक, और उपघात, इन पचवन प्रकृतियों का अपरावर्तमान अशुभवर्ग है । २-पराघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, शरीर-पंचक, पंचदश बंधननाम, संघातनपंच, अंगोपांगत्रिक, अगुरुलघु, निर्माण, शुभवर्णादि एकादश और तीर्थंकर नाम इन छियालीस प्रकृतियों का अपरावर्तमान शुभवर्ग है। ३ सातावेदनीय, प्रथम संहनन, प्रथम संस्थान, स्थिर-षटक, शुभ विहायोगति, मनुष्यद्विक, देवद्विक, पंचेन्द्रियजाति और उच्चगोत्र, इन सोलह प्रकृतियों का परावर्तमान शुभवर्ग है। ४ असातावेदनीय, नरकद्विक, आदिजाति-चतुष्क, अशुभ विहायोगति, अन्तिम पांच संहनन और पांच संस्थान तथा स्थावर-दशक इन अट्ठाईस प्रकृतियों का परावर्तमान अशुभवर्ग है। __प्रायः सभी प्रकृतियों की अभव्य जीव के ग्रन्थीदेश के समीप जो जघन्य स्थितिबन्ध होता है, वहाँ से प्रारम्भ कर अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति तक अनुकृष्टि का विचार किया जाता है। तिर्यंचद्विक और नीचगोत्र इन
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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