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________________ असत्कल्पना से योगस्थानों का स्पष्टीकरण : परिशिष्ट ५ २६५ श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्पर्धकों का एक योगस्थान होता है, जो सबसे जघन्य है। परन्तु कल्पना से प्रथम योगस्थान ६३ स्पर्धकों का समझ लेना चाहिये । अधिक-अधिक वीर्य वाले योगस्थानों में स्पर्धक अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण बढ़ते-बढ़ते हुए जानना चाहिये । क्योंकि अधिक-अधिक वीर्य वाले आत्म-प्रदेश हीन-हीन होते जाते हैं, किन्तु उनमें वर्गणाएँ और स्पर्धक अधिक-अधिक होते हैं । यहाँ कल्पना से जो योगस्थान बताये जा रहे हैं, उनमें एक-एक स्पर्धक की वृद्धि अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण समझना चाहिये । प्रथम योगस्थान के अन्तिम स्पर्धक की अन्तिम वर्गणा में जितने वीर्याविभाग हैं उससे द्वितीय योगस्थान के प्रथम स्पर्धक की प्रथम वर्गणा में असंख्यातगुणे हैं। यहाँ कल्पना से जिन्हें लगभग तिगुने समझ लेना चाहिये। उक्त स्पष्टीकरणों से युक्त योगस्थानों का प्रारूप इस प्रकार जानना चाहिये। प्रथम योगस्थान प्रथम स्पर्धक १ करोड १ वीर्याविभाग वाले ७०० आत्म-प्रदेशों की प्रथम वर्गणा १ करोड़ २ द्वितीय वर्गणा १ करोड़ ३ ६३० तृतीय वर्गणा १ करोड ४ , ६०० चतुर्थ वर्गणा ६७० " २६०० इस प्रकार प्रथम स्पर्धक में २६०० आत्म-प्रदेशों की चार वर्गणाएँ। द्वितीय स्पर्धक २ करोड १ वीर्याविभाग वाले ५८५ आत्म-प्रदेशों की प्रथम वर्गणा २ करोड़ २ ५७५ द्वितीय वर्गणा २ करोड़ ३ ॥ तृतीय वर्गणा २ करोड़ ४ ॥ ५५५ चतुर्थ वर्गणा - २२८०
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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