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________________ परिशिष्ट ५ असत्कल्पना से योगस्थानों का स्पष्टीकरण एवं प्रारूप प्रत्येक जीव के आत्मप्रदेश असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं। कर्मजन्य शरीर से जीव अपने देह प्रमाण दिखता है, लेकिन संहरणविसर्पण (संकोच-विस्तार) गुण की अपेक्षा देह प्रमाण होने पर भी लोकाकाश के बराबर हो सकता है । जैसे कि दीप को बड़े कमरे में रखें तो उस सारे कमरे में उसका प्रकाश व्याप्त हो जाता है और घड़े में रखें तो उतने क्षेत्र प्रमाण में उसका प्रकाश व्याप्त रहता है । यही स्थिति जीव के असंख्यात प्रदेशों को लोकाकाश में व्याप्त होने और देह प्रमाण होने की समझ लेना चाहिये। प्रस्तुत में असत्कल्पना से उन आत्म-प्रदेशों की संख्या १२००० प्रदेश मान लें। प्रत्येक आत्म-प्रदेश पर जघन्य से असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण वीर्याविभाग होते हैं और उत्कृष्ट से भी। जिनको कल्पना से जघन्य एक करोड़ और उत्कृष्ट अनेक करोड़ मान लिया जाये । जघन्य वीर्याविभाग वाले आत्मप्रदेश वर्गीकृत लोक के असंख्यात भागवर्ती असंख्यात प्रतरगत प्रदेश राशि प्रमाण होते हैं । कल्पना से उन जघन्य वीर्याविभाग वाले आत्मप्रदेशों का घनीकृत लोक के असंख्येय भागवर्ती असंख्येय प्रतरगत प्रदेश राशि का प्रमाण ७०० मान लें। श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण वर्गणाओं का एक स्पर्धक होता है । यहाँ असत्कल्पना से चार वर्गणाओं का एक स्पर्धक मानना चाहिये ।
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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