SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १४ ) स्थल पुद्गलों को खींचता है और उनके द्वारा शरीर, मन, सूक्ष्म-शरीर आदि का निर्माण करता है ? इत्यादि ऐसे ही कर्म से सम्बन्धित संख्यातीत प्रश्नों का सयुक्तिक विस्तृत वर्णन जैन कर्म-साहित्य के सिवाय अन्य किसी भी दर्शन के साहित्य में नहीं किया गया है । यही जैनदर्शन की कमतत्त्व के विषय में विशेषता है।। कर्म का लक्षण ___ कर्मतत्त्वविषयक विशेषता का उल्लेख करने पर यह सहज ही जिज्ञासा होती है कि जैनदर्शन में कर्म का लक्षण क्या है ? कर्म का सामान्य अर्थ क्रिया होता है । लेकिन यह एक पारिभाषिक शब्द भी है कि राग-द्वेष संयुक्त संसारी जीव में प्रति समय परिस्पन्दन रूप क्रिया होती रहती है। उसके निमित्त से आत्मा द्वारा एक प्रकार का अचेतन द्रव्य आकर्षित किया जाता है और राग-द्वेष का निमित्त पाकर वह आत्मा के साथ बँध जाता है। समय पाकर वह द्रव्य सुखदुःख आदि फल देने लगता है, उसे कर्म कहते हैं। __ इस कर्म के दो भेद हैं-भावकर्म और द्रव्यकर्म । जीव के जिन राग-द्वेषरूप भावों का निमित्त पाकर जो अचेतन कर्मद्रव्य आत्मा को ओर आकृष्ट होता है, उन भावों का नाम भावकर्म है और जो अचेतन कर्मद्रव्य आत्मा के साथ संबद्ध होता है उसे द्रव्यकर्म कहते भावकर्म के रूप में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पांच को माना है और संक्षिप्त रूप में इन पांचों को कषाय एवं योग के रूप में ग्रहण कर लिया जाता है । इन दो कारणों को भी अति संक्षेप में कहा जाये तो एक कषाय मात्र ही कर्मबन्ध की कारण ठहरती है। अध्यात्मवादियों ने राग और द्वेष इन दो को कर्मबंध का कारण मानकर भावकर्म के रूप में माना है। क्योंकि कोई भी मानसिक विचार हो, या तो वह राग (आसक्ति) रूप या द्वेष (घृणा) रूप है । अनुभव से भी यही सिद्ध है। समस्त. संसारी जीवों की प्रवृत्ति
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy