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( १३ ) मर्थ है ? विपाक का नियत समय बदला जा सकता है या नहीं ? यदि बदला जा सकता है तो उसके लिये कैसे आत्म-परिणाम आवश्यक हैं ? एक कर्म अन्य कर्मरूप कब बन सकता है ? उसकी बंधकालीन तीव्रमंद शक्तियां किस प्रकार बदली जा सकती हैं ? पीछे से विपाक देने वाला कर्म पहले कब और किस प्रकार भोगा जा सकता है ? कितना भी बलवान कर्म क्यों न हो पर उसका विपाक शुद्ध आत्मिक परिणामों द्वारा कैसे रोक दिया जाता है ? कभी-कभी आत्मा के शतशः प्रयत्न करने पर भी कर्म का विपाक बिना भोगे क्यों नहीं छूटता है ? आत्मा किस तरह कर्म का कर्ता और किस तरह कर्म का भोक्ता है ? संक्लेश रूप परिणाम अपनी आकर्षण शक्ति से आत्मा पर एक प्रकार की सूक्ष्म रज का पटल किस प्रकार डाल देते हैं ? आत्मा अपनी वीर्य शक्ति के द्वारा इस सूक्ष्मरज के पटल को किस प्रकार उठा फेंकता है ? स्वभावतः शुद्ध आत्मा भी कर्म के प्रभाव से किस-किस प्रकार मलिनसा दीखता है ? बाह्य हजारों आवरणों के होने पर भी आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप की अभिव्यक्ति किस प्रकार करता है ? वह अपनी उत्क्रांति के समय पूर्ववद्ध तीव्र कर्मों को भी किस प्रकार क्षय कर देता है ? वह अपने वर्तमान परमात्म-भाव को देखने के लिये जिस समय उत्सुक होता है. उस समय उसके और अन्तरायमूलक कर्म के बीच कैसा बलाबल का द्वन्द्व (युद्ध) होता है ? अंत में वीर्यवान आत्मा किस प्रकार के परिणामों से बलवान कर्मों को कम. जोर करके अपने प्रगति मार्ग को निष्कंटक बनाता है ? इस शरीरस्थ आत्ममंदिर में वर्तमान परमात्मदेव का साक्षात्कार कराने में सहायक परिणामों (जिन्हें अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरण कहते हैं) का क्या स्वरूप है ? कर्म, जो कुछ देर के लिये दबे होते हैं, कभी-कभी गुलाट खाकर प्रगतिशील आत्मा को किस तरह नीचे पटक देते हैं ? कौनकौन कर्म बंध और उदय की अपेक्षा आपस में विरोधी हैं ? किस कर्म का बंध किस अवस्था में अवश्यंभावी और किस अवस्था में अनियत है । आत्म संबद्ध अतीन्द्रिय कर्म किस प्रकार की आकर्षण शक्ति से