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________________ ( १२ ) २. बौद्धदर्शन ने ईश्वरकत त्व का निषेध किया है और कर्म एवं उसका विपाक भी माना है । लेकिन बुद्ध ने क्षणिकवाद का प्रतिपादन किया। अर्थात् आत्मा आदि प्रत्येक पदार्थ क्षणिक है। इस प्रतिपादन का निराकरण करने के लिये भगवान महावीर ने स्पष्ट किया कि यदि आत्मा को क्षणिक मान लिया जाये तो कर्मविपाक की किसी तरह उपपत्ति नहीं हो सकती है। स्वकृत कर्म का भोग और परकृत कर्म के भोग का अभाव तभी घटित होता है जबकि आत्मा को न तो एकान्त नित्य माना जाये और न एकान्त क्षणिक । ३. भौतिकवाद का प्रचार प्रत्येक युग में रहा है। भौतिकवादी कृतकर्मभोगी पुनर्जन्मवान किसी स्थायी तत्व को नहीं मानते हैं। भौतिक तत्वों के संयोग से चेतन की उत्पत्ति होतो है । यह दृष्टि बहुत ही संकुचित थी, जिसका कर्म सिद्धान्त के द्वारा निराकरण किया गया। जैनदर्शन की कर्म-विवेचना का सारांश यद्यपि कुछ वैदिक दर्शनों और बौद्धदर्शन में भी कर्म की विचारणा है। परन्तु उनके द्वारा संसारी आत्मा की अनुभवसिद्ध भिन्न-भिन्न अवस्थाओं का जैसा स्पष्टीकरण होना चाहिये वैसा कुछ भी नहीं किया गया है । पातंजल दर्शन में कर्म के जाति, आयु और भोग ये तीन तरह के विपाक बताये हैं किन्तु वह वर्णन जैनदर्शन के कर्म विचार के सामने नाममात्र का है। जनदर्शन ने कर्म विचार का वर्णन अथ से इति तक किया है। संक्षेप में जिसका रूपक इस प्रकार है कर्म अचेतन पौद्गलिक है और आत्मा चेतन; परन्तु आत्मा के साथ कर्म का बंध कैसे होता है ? किन-किन कारणों से होता है ? किस कारण से कर्म में कैसी शक्ति पैदा होती है ? कर्म अधिक से अधिक और कम से कम कितने समय तक आत्मा के साथ संबद्ध रहता है ? आत्मा के साथ संबद्ध कर्म कितने समय तक विपाक देने में अस
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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