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चाहे ऊपर से कसी भी क्यों न दीख पड़े परन्तु वह या तो रागमूलक या द्वेषमूलक होती है। ऐसी प्रवृत्ति ही विविध वासनाओं का कारण होती है। प्राणी जान सके या नहीं पर उसकी वासनात्मक सूक्ष्म दृष्टि का कारण उसके राग और द्वष ही होते हैं। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिये कि किसी को भी कर्म का कारण क्यों न हा जाये पर यदि उसमें कर्म की बंधकता है तो वह राग-द्वेष के सम्बन्ध से ही है। राग-द्वेष का अभाव होते ही अज्ञानपना आदि कम या नष्ट होते जाते हैं।
सारांश यह कि राग-द्वेष जनित शारीरिक-मानसिक प्रवृत्ति से कर्मबंध होता है । वह राग-द्वेषरूप प्रवृत्ति भावकर्म है। इस प्रवृत्ति के द्वारा आत्म-प्रदेशवर्ती जिन कर्मयोग्य पुद्गल परमाणुओं का आकर्षण होकर आत्मा से बंध होता है, उन गृहोत पुद्गल परमाणुओं का समूह द्रव्यकर्म कहलाता है । बंध के चार प्रकार -
इन द्रव्यकर्मों का क्रमशः निम्नलिखित चार बंधभेदों में वर्गीकरण कर लिया जाता है
१. प्रकृतिबंध, २. प्रदेशबंध, ३ अनुभागबंध, ४. स्थितिबंध ।
प्रकृतिबंध में कर्म-परमाणुओं की प्रकृति अर्थात् स्वभाव का विचार किया जाता है। प्रदेशबंध में भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले कर्मों के परमाणुओं की संख्या अर्थात् उनमें से प्रत्येक के कितने कर्म-प्रदेश हैं, एवं उनका तुलनात्मक अनुपात क्या है, का कथन होता है। अनुभागबंध एवं स्थितिबंध में क्रमशः कर्मों के फल देने की शक्ति की तीव्रता मंदता आदि का निश्चय और कर्मफल के काल-समय-स्थिति का दिग्दर्शन किया जाता है। - इन चार बन्ध-प्रकारों में से प्रकृति और प्रदेश बन्ध आत्मा की योगरूप परिणति से होते हैं एवं अनुभाग व स्थिति बंध कषाय से