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________________ बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८५ १७७ छोड़कर शेष रहे जिन अध्यवसायों से जैसा रस जघन्य स्थिति को बांधते हुए बंधता था, वैसा रस समयाधिक द्वितीय स्थिति को बांधते हुए भी बंधता है । अन्यत्र भी इसी प्रकार से समझना चाहिये । पहले स्थितिस्थान में जो रसबंधाध्यवसाय होते हैं, उनसे दूसरे स्थितिस्थान में विशेषाधिक होते हैं। उनसे तीसरे में विशेषाधिक होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक स्थितिस्थान में रसबंधाध्यवसाय बढ़ते जाते हैं। यहाँ अनुकृष्टि में पहले स्थितिस्थान सम्बन्धी रसबंधाध्यवसायों का असंख्यातवां भाग छोड़कर शेष स्थान ऊपर की ओर बढ़े और वे पहले से अधिक हैं, उनकी पूर्ति नवीन अध्यवसायों से होती है। यानि पहले स्थितिस्थान में जो रसबंधाध्यवसाय हैं उनका असंख्यातवां भाग छोड़कर शेष सभी तथा उनके ही एक देश में जितने आते हैं, उतने दूसरे नये रसबंधाध्यवसाय दूसरे स्थितिस्थान में होते हैं । नये इतने बढ़ना चाहिये कि वे पहले स्थितिस्थानगत रसबंधाध्यवसायों से कुल मिलाकर दूसरे स्थितिस्थान में अधिक हों। ___ इसको एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हैं—मानलो कि पहले स्थान में सौ रसबंधाध्यवसाय हैं, दूसरे में एक सौ पाँच तो पहले में के आदि के पाँच को छोड़कर पंचानवें की दूसरे स्थान में अनुकृष्टि हुई परन्तु उसमें एक सौ पाँच हैं, यानि कि दस नये होते हैं। इसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिये। दूसरा स्थितिस्थान बाँधते हुए जो अनुभाग बंधाध्यवसाय हैं, उनका असंख्यातवां भाग छोड़कर शेष सभी तीसरा स्थितिस्थान बांधते होते हैं और दूसरे नये होते हैं। तीसरा स्थितिस्थान बांधते जो रसबंधाध्यवसाय होते हैं, उनके आदि का असंख्यातवां भाग छोड़कर बाकी के सभी चौथा स्थितिस्थान बांधते होते हैं और दूसरे नये होते हैं। इस प्रकार वहां तक कहना चाहिये यावत् पल्योपम के असंख्यातवें भाग में रहे हुए समय प्रमाण स्थितिस्थान होते हैं। ___ जघन्य स्थिति को बांधते जो रसबंध के अध्यवसाय थे, यहाँ उनकी अनुकृष्टि समाप्त हो जाती है । अर्थात् जघन्य स्थितिबंध करने
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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