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________________ १७६ पंचसंग्रह : ६ एवं उवरि हुत्ता गंतुणं कंडमेत्त ठिइबंधा । पढमठिइठाणाणं अणुकड्ढी जाइ परिणि? ॥४॥ तदुवरिमआइयासु कमसो बीयाईयाण निट्ठाइ। ठिइठाणाणणुकड्ढी आउक्कस्सं ठिई जाव ॥८॥ . शब्दार्थ-मोत्तुमसंखंभागं असंख्यातवें भाग को छोड़कर, जहन्नजघन्य, ठिइठाणगाण-स्थितिस्थानों की, सेसाणि-शेष, गच्छंति होती है, उरिमाए-ऊपर में, तदेकदेसेण-तदेकदेश, अन्नाणि-अन्य । .... एवं-इसी प्रकार, उवरि हुत्ता-ऊपर की ओर, गंतुणं-जाकर, कंडमेत्त -कंडकमात्र, ठिइबंधा--स्थितिबंधस्थान, पढमठिइठाणाणं-प्रथम स्थितिस्थानों की, अणुकड्ढी–अणु कृष्टि, जाइ होती है, परिणिठें-पूर्ण । तदुवरिमआइयासु-उससे ऊपर के स्थानों आदि में, कमसो-क्रमशः, बीयाइयाण-द्वितीय आदि की, निट्ठाइ—पूर्ण होती है, ठिइठाणाणणुकड्ढीस्थितिस्थानों की अनुकृष्टि, आउक्कस्सं--उत्कृष्ट स्थिति, जाव-यावत्-तक । गाथार्थ-जघन्य स्थितिस्थान सम्बन्धी रसबंधाध्यवसायों के असंख्यातवें भाग को छोड़कर शेष सब ऊपर की स्थिति में जाते हैं तथा उनका एकदेश और अन्य होता है। इस प्रकार ऊपर पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति. स्थानों के जाने पर प्रथम स्थितिस्थान सम्बन्धी रसबंधाध्यवसायों की अनुकृष्टि पूर्ण होती है। ___ तत्पश्चात् उसके ऊपर ऊपर के स्थितिस्थानों में अनुक्रम से द्वितीयादि स्थितिस्थानों की अनुकृष्टि पूर्ण होती है । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त जानना चाहिये। - विशेषार्थ-इन तीन गाथाओं में अपरावर्तमान अशुभ प्रकृतियों की अनुकृष्टि का विचार किया गया है कि 'मोत्तुमसंखंमागं' अर्थात् उपघातनाम आदि पचपन अपरावर्तमान अशुभ प्रकृतियों की जघन्य स्थिति बाँधते हुए रसबंध के निमित्तभूत जो अध्यवसाय हैं, उनके प्रारम्भ का असंख्यातवां भाग छोड़कर शेष सभी रसबंधाध्यवसाय दूसरे स्थितिस्थान में होते हैं। यानि प्रारम्भ से असंख्यातवां भाग
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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