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________________ १६० पंचसंग्रह : ६ अल्प हैं। उसकी अपेक्षा यवमध्य पूर्व के जघन्य चार समय काल के स्थानों को बाँधने वाले जीव असंख्यातगुणे हैं, यवमध्य से ऊपर चार समय काल वाले स्थानों को बाँधने वाले जीव भी उतने ही हैं । उनसे आठ समय काल वाले स्थानों को बाँधने वाले असंख्यातगुणे हैं, उनसे तीन समय काल वाले स्थानों को बाँधने वाले असंख्यातगुणे हैं । उनसे प्रारम्भ के पाँच, छह और सात समय काल वाले स्थानों को बाँधने वाले असंख्यातगुणे हैं, यवमध्य से ऊपर के सात, छह और पांच समय काल वाले स्थानों को बाँधने वाले जीव उतने ही हैं। उससे यवमध्य के ऊपर के सभी स्थानों को बाँधने वाले विशेषाधिक हैं। उनसे प्रारम्भ के जघन्य चार समय काल वाले स्थान से लेकर यवमध्य से ऊपर के पांच समय काल वाले तक के समस्त स्थानों को बाँधने वाले जीव विशेषाधिक हैं। उनसे भी समस्त रसबंधस्थानों को बाँधने वाले जीव विशेषाधिक हैं। प्रश्न--इसी विषय में कर्मप्रकृति में अध्यवसायस्थानों में उपयुक्त जीवों का अल्पबहुत्व इस प्रकार कहा है - जीवप्पा बहुभेयं अज्झवसाणेसु जाणेज्जा । अध्यवसायों में इस प्रकार से जीवों का अल्पबहुत्व जानना चाहिये-जिस प्रकार से स्पर्शना काल में कहा है और इस (पंचसंग्रह) में रसबंध के बाँधने वाले जीवों का अल्पबहुत्व कहा है, तो परस्पर विरोध क्यों नहीं होगा ? उत्तर-अध्यवसाय और अनुभाग-स्थान ये दोनों एकार्थक हैं। यहाँ (पंचसंग्रह में) रसबंधस्थानों के बाँधने वाले जीवों का अल्पबहुत्व कहा है और कर्मप्रकृति में रसस्थान के बंध में निमित्तभूत अध्यवसायों का कारण में कार्य का आरोप करके अल्पबहुत्व कहा है। इसीलिये यथार्थ रूप से दोनों में कोई अर्थभेद नहीं है। क्योंकि जितने रसबंध के कारणभूत अध्यवसायस्थान हैं उतने ही रसबंध के स्थान हैं । अतएव दोनों के कथन में कोई विरोध नहीं है ।
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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