SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७१ १६१ इस प्रकार से रसबंधस्थानों के बाँधने वाले जीवों का अल्पबहुत्व जानना चाहिये । अब यह स्पष्ट करते हैं कि एक स्थितिस्थान के बंध के कारण कितने अध्यवसाय हैं और स्थितिस्थान के हेतुभूत प्रत्येक अध्यवसाय में अनेक जीवों की अपेक्षा रसबंध के निमित्तभूत कितने अध्यवसाय होते हैं। स्थिति एवं रसबंध के निमित्तभूत अध्यवसाय ठिइठाणे ठिइठाणे कसायउदया असंखलोगसमा। एक्केक्कसायउदये एवं अणुभागठाणाइं ॥१॥ शब्दार्थ-ठिइठाणे ठिइठाणे-स्थितिस्थान-स्थितिस्थान में, कसायउदया-कषायोदय के स्थान, असंखलोगसमा-असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण, एक्केक्कसाय उदये- एक-एक कषायोदय (अध्यवसाय) में, एग-इसी प्रकार, अणुभागठाणाई-अनुभागबंध के निमित्तभूत स्थान । गाथार्थ-स्थितिस्थान-स्थितिस्थान में अर्थात् प्रत्येक स्थितिस्थान में उसके कारणभूत असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण कषायोदय के स्थान होते हैं और एक-एक कषायोदय में असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण अनुभागबंध के निमित्तभूत अध्यवसायस्थान होते हैं। विशेषार्थ-गाथा में दो बातों को स्पष्ट किया है कि प्रत्येक स्थितिस्थान के बंध के कारण कितने अध्यवसाय हैं और स्थितिस्थान के हेतुभूत प्रत्येक अध्यवसाय में नाना जीवों की अपेक्षा रसबंध के निमित्तभूत कितने अध्यवसाय होते हैं। उनमें से पहले प्रत्येक स्थितिस्थान के बंध के कारणभूत अध्यवसायों को बतलाते हैं। ___ एक समय में एक साथ जितनी स्थिति बंधती है उसे स्थितिस्थान कहते हैं। उसके जघन्य स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थितिबंध पर्यन्त जितने समय हैं, उतने स्थितिस्थान होते हैं । जैसे कि जघन्य स्थिति यह पहला स्थितिस्थान, समयाधिक जघन्य स्थिति ये दूसरा स्थितिस्थान, दो समयाधिक जघन्य स्थिति तीसरा स्थितिस्थान इस प्रकार समय-समय की वृद्धि करते हुए सर्वोत्कृष्ट स्थिति ये अंतिम
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy