SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७० १५६ ने उतने-उतने काल उस-उस समयप्रमाण वाले अनुभागस्थानों का बंध किया है। अब इन अनुभागस्थानों का अल्पबहुत्व बतलाते हैं पांच, छह, सात समय काल वाले रसस्थानों का समुदित जो स्पर्शना काल है, उसकी अपेक्षा यवमध्य से ऊपर के सात से लेकर दो समय काल पर्यन्त के सभी स्थानों का समुदित स्पर्शनाकाल विशेषाधिक है। उसकी अपेक्षा कंडक यानि यवमध्य से ऊपर के चार समय काल वाले स्थानों से लेकर जघन्य चार समय काल वाले स्थानों तक के सभी स्थानों का समुदित स्पर्शना काल विशेषाधिक है। उसकी अपेक्षा सभी स्थानों का समुदित स्पर्शनाकाल विशेषाधिक है। इस प्रकार से रसबंध में स्पर्शना यानि बंधकाल का अल्पबहुत्व जानना चाहिये । अब उन रसस्थानों के बांधने वाले जीवों का अल्पबहुत्व कहते हैं फासण कालप्पबहू जह तह जीवाण भणसु ठाणेसु।। अणुभागबंधठाणा अज्झवसाया व एगट्ठा ॥७०॥ शब्दार्थ-फासण कालप्पबहू-स्पर्शनाकाल का अल्पबहुत्व, जह-जिस प्रकार से, तह-उसी प्रकार से, जीवाण-जीवों का, भणसु-कहना चाहिये, ठाणेसु-स्थानों में, अणुभागबंधठाणा-अणुभाग बंधस्थान, अज्मवसाया--अध्यवसाय, व--अथवा, एगट्ठा-एकार्थक । गाथार्थ-जिस प्रकार से स्थानों में स्पर्श नाकाल का अल्पबहुत्व कहा है उसी प्रकार जीवों का भी अल्पबहुत्व कहना चाहिये। अनुभागबंधस्थान अथवा अध्यवसाय ये दोनों एकार्थक हैं। विशेषार्थ-रसबंधस्थानों में जिस प्रकार से स्पर्शनाकाल का अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार जीवों का भी अल्पबहुत्व कहना चाहिये कि दो समय काल वाले रसबंधस्थानों को बाँधने वाले जीव
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy