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________________ १५६ पंचसंग्रह : ६ उत्तर-यह कथन सत्य है कि विवक्षित किसी भी एक समय की अपेक्षा विचार किया जाये तो बीच में बंधशून्य स्थान होने से द्विगुणहानिस्थान घटित नहीं हो सकते हैं। परन्तु त्रिकालवर्ती जीवों की अपेक्षा विचार किया जाये तो कोई भी स्थान बंधशून्य नहीं हो सकता है। क्योंकि भूतकाल में प्रत्येक स्थान जीव ने स्पर्श किया है और भविष्यकाल में स्पर्श करेगा, जिससे उसकी अपेक्षा से चार समय वाले स्थान से यवमध्य पर्यन्त प्रत्येक स्थान में जीवों की जो वृद्धि तथा उसके बाद क्रमशः जीवों की जो हानि कही है, एवं आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण द्विगुण हानि वाले जो स्थान कहे हैं, वे बराबर घटित हो सकते हैं। यहाँ त्रिकालवर्ती जीवों की अपेक्षा विचार किया गया है, कि आवलिका के असंख्यातवें भाग के समय प्रमाण अनुभागबंधस्थान निरंतर बंधते हैं और उसके बाद कितने ही स्थान अवश्य बंधशून्य होते हैं यह विचार विवक्षित किसी भी एक समय की अपेक्षा है, जिससे यहाँ किसी प्रकार का विरोध नहीं है। ___ त्रसों की पहली और दूसरी द्विगुण हानि के बीच में जो स्थान हैं, उनकी अपेक्षा स्थावर जीवों के यवमध्य के पहले के और पीछे के कुल मिलाकर जो द्विगुणहीन अनुभागस्थान होते हैं, वे असंख्यातगुण हैं। यहाँ त्रसों के समस्त द्विगुणहीन स्थान अल्प हैं, उससे एक और दूसरी द्वि गुण हानि के बीच के रसबंधस्थान असंख्यातगुण हैं। स्थावरों के सम्बन्ध में इस प्रकार है-त्रसों के द्विगुणहानि के बीच के स्थान अल्प हैं, उससे उनके-स्थावरों के द्विगुणहीन स्थान असंख्यातगुण हैं। ___ इस प्रकार जिस क्रम से अनुभागबंधस्थान में बंधक की अपेक्षा जीवों की हानि होती है उसका विचार करने के बाद अब यवमध्य प्ररूपणा करते हैं। यवमध्य प्ररूपणा जवमज्झे ठाणाई असंखभागो उ सेसठाणाण । हेट्ठमि हीति थोवा उवरिम्मि असंखगुणियाणि ॥६७॥
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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