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________________ बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६ १५५ आवलिअसंखभागं तसेसु हाणीण होइ परिमाणं। हाणि दुगंतरठाणा थावरहाणी असंखगुणा ॥६६॥ शब्दार्थ-आवलिअसंखभाग-आवलिका के असंख्यतावें भाग, तसेसुत्रस जीवों में, हाणीण-हानि का, होइ–होता है, परिमाणं-प्रमाण, हाणि -हानि, दुगंतरठाणा-दो हानि के मध्य के स्थान, थावरहाणी-स्थावर जीवों की हानियां, असंखगुणा-असंख्यातगुण । गाथार्थ-त्रस जीवों में हानि का प्रमाण आवलिका का असंख्यातवां भाग प्रमाण है एवं दो हानियों के बीच के स्थान तथा स्थावर जीवों की हानियां असंख्यातगुण हैं। विशेषार्थ-त्रस जीवों के विषय में यवमध्य की अपेक्षा उससे पहले और बाद में जो द्विगुणहानि होती है, वह कुल मिलाकर 'आवलि असंखभाग'-आवलिका के असंख्यातवें भाग समय प्रमाण होती है और आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं, उतने कुल मिलाकर द्विगुणहानि के स्थान होते हैं। प्रश्न-पूर्व में कहा गया है कि त्रस जीवों द्वारा निरंतर अनुभागबंधस्थान बंधे तो अधिक से अधिक आवलिका के असंख्यातवें भाग समय प्रमाण बंधते हैं। उसके बाद कितने ही स्थान बंधशून्य होते हैं एवं कितने ही बंधते हैं, फिर कितने ही बंधते हैं और फिर कितने ही बंधशून्य होते हैं । इस प्रकार निरंतर भी बंधते हैं और बीच-बीच में बंधशून्य भी होते हैं। प्रत्येक स्थान निरंतर बधते नहीं हैं। जब इस प्रकार है तो जघन्य स्थान से लेकर यवमध्य रसस्थान तक जीवों की वृद्धि कही और फिर जीवों की हानि कही एवं यवमध्य के पहले और बाद में कुल मिलाकर आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण द्विगुण हानि के स्थान कहे तो वे किस प्रकार घटित होते हैं ? यथार्थ में देखा जाये तो इस प्रकार से एक भी द्विगुणहानिस्थान घटित नहीं हो सकता है।
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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