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________________ १५४ पंचसंग्रह : ६ वाले जीव अल्प हैं । उससे तथा उसके पीछे के स्थान को बांधने वाले जीव अल्प हैं । इस प्रकार अल्प-अल्प उत्कृष्ट दो समय काल वाले अंतिम स्थान पर्यन्त कहना चाहिये । इस प्रकार से अनन्तरोपनिधा प्ररूपणा का आशय है। अब परंपरोपनिधा द्वारा विचार करते हैं यवमध्य सरीखे आठ समय काल वाले अनुभागबंध स्थानों को बांधने वाले जीवों से उसकी दोनों बाजु असंख्यात-असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण स्थानों को उलांघने के बाद जो-जो अनुभागबंधस्थान प्राप्त होता है उसमें पूर्व-पूर्व की अपेक्षा अर्ध-अर्ध जीव होते हैं। इस प्रकार वहाँ तक कहना चाहिये जब एक बाजू तो चार समय और दूसरी बाजू में दो समय काल वाला स्थान प्राप्त हो । उक्त कथन का तात्पर्य यह है-जघन्य अनुभागबंधस्थान को जितने जीव बांधते हैं उनसे जघन्य अनुभागबंधस्थान से लेकर असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण स्थानों को उलांघने के बाद जो स्थान आता है, उसको बांधने वाले जीव दुगुने होते हैं । पुनः वहां से भी उतने स्थानों को उलांघने के बाद जो स्थान आता है उसको बांधने वाले जीव दुगुने होते हैं। इस प्रकार दुगुने-दुगुने यवमध्य पर्यन्त कहना चाहिये। यवमध्य के अंतिम स्थान के अनन्तर असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण स्थानों का अतिक्रमण करने पर जो स्थान प्राप्त होता है, उसमें अंतिम द्विगुण वृद्धस्थान के जीवों से द्विगुणहीन अर्थात् आधे जीव होते हैं। पुनः उतने ही स्थानों का अतिक्रमण करने के बाद प्राप्त स्थान में आधे जीव होते हैं । इस प्रकार आधे-आधे जीव वहाँ तक कहना चाहिये जब सर्वोत्कृष्ट दो समय काल वाला रसबंधस्थान प्राप्त हो। ___ इस प्रकार परंपरोपनिधा से बंधकाल प्रमाण का विचार करने के बाद अब हानि के प्रमाण का विचार करते हैं।
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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