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________________ बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५५,५६ १३६ होते हैं तथा आठ समय कालमान वालों में के अंतिम रसबंधस्थान से उसके ऊपर का उत्तर का सात समय काल मान वालों में का पहला स्थान अनन्तगुणवृद्ध स्पर्धक वाला है, उसकी अपेक्षा उससे पहले के आठ समय काल मान वाले समस्त रसबंध स्थान अनन्तगुणहीन स्पर्धक वाले हैं। इसी प्रकार शेष सात, हह समयादि कालमान वाले स्थान पूर्व के और बाद के उत्तर के रसस्थान की अपेक्षा अनन्तगुणवृद्ध और अनन्तगुणहीन स्पर्धक वाले होते हैं। मात्र प्रारम्भ के चार समय कालमान वाले स्थान पांच समय काल वालों की अपेक्षा अनन्तगुणहीन ही होते हैं, अनन्तगुणवृद्ध नहीं । इसका कारण यह है कि प्रारम्भ ही वहां से होता है। उससे पहले कोई रसस्थान नहीं है कि जिसकी अपेक्षा अनन्तगुणवृद्ध हो तथा अंतिम दो समय कालमान वाले समस्त स्थान उससे पूर्व के तीन समय कालमान वाले स्थानों की अपेक्षा अनन्तगुवृणद्ध ही होते हैं, अनन्तगुणहीन नहीं होते हैं क्योंकि वे ही अंतिम है, उसके बाद कोई स्थान नहीं है कि जिसकी अपेक्षा अनन्तगुणहीन हों। उक्त समग्र कथन यव की आकृति द्वारा स्पष्ट रूप से समझ में आ सकता है। क्योंकि यवमध्य-आठ समय कालमान वाले स्थानों के पहले के चार समय काल वाले से लेकर यवमध्य पर्यन्त अनुक्रम से अधिक-अधिक स्थिति वाले हैं और बाद के दो समय काल वाले स्थान पर्यन्त अनुक्रम से हीन-हीन स्थिति वाले हैं। इस प्रकार से यवमध्य सम्बन्धी समय प्ररूपणा का आशय जानना चाहिये । अब इन चार समयादि काल वाले स्थानों के अल्पबहुत्व का निर्देश करते हैं आठ समय काल वाले स्थान सब से अल्प हैं। क्योंकि बहुकाल पर्यन्त बंधयोग्य स्थान तथास्वभाव से अल्प और अल्प-अल्प काल वाले अनुक्रम से अधिक-अधिक होते हैं। यवमध्य स्थानों से उसके
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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