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________________ १४० पंचसंग्रह : ६ दोनों बाजुओं में रहे हुए सात समय काल वाले स्थान असंख्यातगुण हैं और परस्पर में तुल्य हैं। उनकी अपेक्षा उसकी दोनों बाजुओं में रहे हुए छह समय काल वाले स्थान असंख्यातगुण हैं और स्वस्थान में परस्पर दोनों तुल्य हैं । उसकी अपेक्षा दोनों बाजुओं के पाँच समय काल वाले स्थान असंख्यगुण हैं और स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं। उससे उनकी दोनों बाजु के चार समय काल वाले असंख्यगुण हैं और स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं, उससे तीन समय काल वा ने असंख्यगुण हैं और उनसे दो समय वाले असंख्यगुण हैं । इस प्रकार यवमध्य प्ररूपणा के स्थानों का अल्पबहुत्व जानना चाहिए। अब इन समस्त रसबंध स्थानों की समुदायापेक्षा विशिष्ट संख्या का निरूपण करते हैंरसबंध स्थानों की कुल संख्या सुहमणि पविसंता चिट्ठता तेसि काठिइकालो। कमसो असंखगुणिया तत्तो अणुभागठाणाई ॥५७॥ शब्दार्थ-सुहमणि-सूक्ष्म अग्निकाय, पविसंता-प्रवेश करते हैं, चिट्ठता-विद्यमान, तेसि-उनकी, कायठिइकालो-स्वकायस्थितिकाल, कमसो-क्रम से, असंखगुणिया-असंख्यातगुण, तत्तो-उनसे, अणुभागठाणाई -अनुभाग (रस) बंध के स्थान । ___ गाथार्थ - जो जीव सूक्ष्म अग्निकाय में प्रवेश करते हैं, तथा जो उसमें विद्यमान हैं और उनका जो अपना कायस्थिति काल है, वह अनुक्रम से असंख्यातगुण है, उससे भी रसबंध के स्थान असंख्यातगुणे हैं। विशेषार्थ-गाथा में रसबंध के स्थानों की कुल संख्या का प्रमाण बतलाया है कि जो जीव एक समय में सूक्ष्म अग्निकाय में प्रवेश करते हैं अर्थात् उत्पन्न होते हैं, वे अल्प हैं, फिर भी उनकी संख्या
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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