SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८ पंचसंग्रह : ६ निरंतर सात समय तथा तत्पश्चात्वर्ती असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण स्थानों में के किसी भी स्थान को निरंतर उत्कृष्ट से आठ समय पर्यन्त बांधता है, तत्पश्चात्वर्ती असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण रसस्थानों को सात समय पर्यन्त, उसके बाद के असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण स्थानों को छह समय पर्यन्त, तत्पश्चाद्वर्ती असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण स्थानों को पांच समय पर्यन्त, तत्पश्चातद्वर्ती असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण स्थानों को चार समय पर्यन्त, उसके बाद के असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण स्थानों को तीन समय पर्यन्त और उसके बाद के असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण उत्कृष्ट रसस्थान तक के रसस्थानों में के किसी भी रसस्थान को उत्कृष्ट से निरंतर दो समय पर्यन्त बांधता है और जघन्य से किसी भी रसस्थान को एक समय पर्यन्त ही बांधता है । इस प्रकार से रसस्थानों को बांधने की समय प्ररूपणा का आशय जानना चाहिये । अब यवमध्य प्ररूपणा करते हैं। यवमध्य प्ररूपणा-आठ समय कालमान वाले स्थानों की 'यवमध्य' यह संज्ञा है। जैसे यव का मध्य भाग मोटा होता है और दोनों बाजुओं में अनुक्रम से पतला-पतला होता जाता है, उसी प्रकार आठ समय काल मान वाले स्थान काल की अपेक्षा मोटे यानि अधिक कालमान वाले हैं और उसकी दोनों बाजु में हीन-हीन कालमान वाले स्थान हैं। जिससे आठ समय कालमान वाले स्थान यवमध्य कहलाते हैं। ये आठ समय काल वाले रसबंध के स्थान किसी रसस्थान की अपेक्षा अनन्तगुणवृद्ध हैं और किसी रसस्थान की अपेक्षा अनन्तगुणहीन हैं। जो इस प्रकार से जानना चाहिये। पूर्व के सात समय कालमान वाले रसस्थानों में के अंतिम रसस्थान से आठ समय काल वाले रसस्थानों का पहला रसस्थान अनन्तगुणवृद्ध स्पर्धक वाला होता है । जब पहला ही अनन्तगुणबृद्ध है तब शेष सभी उसकी अपेक्षा अनन्तगुणवृद्ध ही
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy