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________________ बंधनकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २७ ७७ तेवि-वे भी, उ-और, संखासंखा-संख्यात असंख्यात (अनन्त), गुणपलिभागे-स्नेहाणु वाले परमाणुओं का, अइक्कता-अतिक्रमण करने के बाद प्राप्त होते हैं। गाथार्थ-शरीरबंधननामकर्म के योग्य सर्वजघन्य स्नेह गुण वाले जो परमाणु हैं वे भी संख्यात, असंख्यात और अनन्त स्नेहाणु वाले परमाणुओं का अतिक्रमण करने के बाद प्राप्त होते हैं। विशेषार्थ--पन्द्रह बंधननामकर्म के योग्य जो पुद्गल परमाणु हैं, अर्थात् बंधननामकर्म के उदय से शरीरयोग्य जिन पुद्गल परमाणुओं का आत्मा के साथ संबंध होता है, उनमें भी कम-से-कम संख्यात, असंख्यात या अनन्त स्नेहाणु वाले परमाणु नहीं होते हैं, किन्तु अनन्तानन्त स्नेहाणु वाले परमाणु होते हैं। उक्त संक्षिप्त कथन का तात्पर्य यह है कि एक स्नेहाविभाग युक्त पुद्गल परमाणु शरीरयोग्य नहीं होते हैं, यानि औदारिक-औदारिकादि पन्द्रह बंधनों में से किसी भी बंधन के विषय-भूत नहीं होते हैं। इसी प्रकार दो स्नेहाणु वाले, तीन स्नेहाणु वाले आदि इसी क्रम से बढ़ते-बढ़ते संख्यात स्नेहाणु वाले, असंख्यात या अनन्त स्नेहाणु वाले पुद्गल परमाणु भी बंधन के विषयभूत नहीं होते हैं परन्तु-. सम्वजियाणंतगुणेण जे उ नेहेण पोग्गला जुत्ता। ते वग्गणा उ पढमा बंधणनामस्स जोग्गाओ॥२७॥ अविभागुत्तरियाओ सिद्धाणमगंतभाग तुल्लाओ। शब्दार्थ-सव्वजियाणंतगुणेण-संपूर्ण जीव राशि से अनन्त गुणे,जे उजो, नेहेण-स्नेह से, पोग्गला-पुद्गल परमाणु, जुत्ता–युक्त, ते—वह, वग्गणा -वगंणा, उ-ही, पढमा-प्रथम, बंधणनामस्स-बंधननामकर्म के, जोग्गाओ---योग्य, अविभागृत्तरियाओ-एक-एक अविभाग से बढ़ती हुई, सिद्धाणमणंतभाग तुल्लाओ—सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण।
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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