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________________ ७६ पंचसंग्रह : ६ प्ररूपणा, ३. स्पर्धक प्ररूपणा, ४. अंतर प्ररूपणा, ५. वर्गणागत पुद्गलों के स्नेहाविभाग के समस्त समुदाय की प्ररूपणा, ६ स्थान प्ररूपणा, ७. कंडक प्ररूपणा और ८. षट्स्थान प्ररूपणा । इनमें से प्रथम अविभाग प्ररूपणा का निर्देश करते हैं । अविभाग प्ररूपणा पंचह सरीराणं परमाणणं मईए अविभागो । कप्पियगाणेगंसो गुणाणु भावाणु वा होज्जा ॥२५॥ शब्दार्थ -- पंचण्ह सरीराणं - पांच शरीरों के, परमाणू - परमाणुओं के, मईए – बुद्धि से, अविभागो—अविभाग, कप्पियगाणेगंसो - किया गया एक अंश, गुणाणु — गुणाणु, भावाणु - भावाणु, वा - अथवा, होज्जा - होता है, कहलाता है । गाथार्थ - पाँच शरीरों के परमाणुओं के स्नेह का बुद्धिरूप शस्त्र द्वारा अविभाग करना और उन किये गये अविभागों में से एक अंश गुणाणु अथवा भावाणु कहलाता है । विशेषार्थ - 'पंचण्ह सरीराणं' अर्थात् पन्द्रह बंधननामकर्म के द्वारा बंधयोग्य औदारिकादि पाँच शरीरों के परमाणुओं में रहे हुए स्नेह के केवली की प्रज्ञा रूप शस्त्र से किये गये एक के दो अंश न हों इस प्रकार के अविभागी अंशों के एक अंश को गुणाणु - गुणपरमाणु अथवा भावाणु-भावपरमाणु कहते हैं- 'गुणाणु भावाणु वा होज्जा' । इस प्रकार से अविभाग प्ररूपणा का स्वरूप जानना चाहिये | अब तदनन्तरवर्ती वर्गणा प्ररूपणा का वर्णन करते हैं । वर्गणा प्ररूपणा जे सव्वजहन्नगुणा जोग्गा तणुबंधणस्स परमाणु । तेवि उ संखासंखा गुणपलिभागे अइक्कंता ॥२६॥ शब्दार्थ — जे—जो, सवजहन्नगुणा — सर्व जघन्य स्नेह गुण वाले, जोगा— योग्य, तणुबंधणस्स — शरीरबंधननामकर्म के, परमाणु—परमाणु,
SR No.001903
Book TitlePanchsangraha Part 06
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1986
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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