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________________ पंचसंग्रह स्थान के साथ कोई भी जीव नरकगति में नहीं जाता है । इसीलिए वेद के साथ योगों का गुणा करके एक संख्या कम करने का संकेत किया है और उसके बाद शेष अंकों का गुणाकार करना चाहिए । यदि ऐसा न किया जाये तो जितने भंग होते हैं, उतने निश्चित भंगों की संख्या का ज्ञान सुगमता से नहीं हो सकता है । ४४ इस भूमिका के आधार से अब हेतुओं के भंगों का निर्देश करते हैं । सासादनगुणस्थान में प्राप्त बंध सासादन गुणस्थान में जघन्य पदभावी दस बंधहेतु होते हैं । उनके भंगों के लिए पूर्वी प्रकार से अंक स्थापना करके इस प्रकार गुणाकार करना चाहिए तीन वेद के साथ तेरह योग का गुणा करने पर ( ३x १३ = ३९) उनतालीस हुए। उनमें से एक रूप कम करने पर शेष अड़तीस (३८) रहे । ये अड़तीस भंग छह कायवध में घटित होते हैं । यथा— कोई सत्यमनोयोगी पुरुषवेदी पृथ्वीकाय का वध करने वाला होता है, कोई सत्यमनोयोगी पुरुषवेदी अप्काय का वध करने वाला कोई तेजस्काय आदि का वध करने वाला भी होता है । इसी प्रकार असत्यमनोयोग आदि प्रत्येक योग और प्रत्येक वेद का योग करना चाहिए। जिससे अड़तीस को छह से गुणा करने पर (३६ x ६ = २२८) दो सौ अट्ठाईस हुए । ये दो सौ अट्ठाईस एक-एक इन्द्रिय की अविरति वाले होते हैं । इसलिए उनको पांच से गुणा करने पर (२२८४५ = ११४०) ग्यारह सौ चालीस भंग हुए। ये ग्यारह सौ चालीस हास्य रति के उदय वाले ओर दूसरे उतने ही ( अर्थात् १९४० ) शोक अरति के उदय वाले भी होते हैं । इसलिए उनको दो से गुणा करने पर (११४०x२=२२८०) बाईस सौ अस्सी भंग हुए। ये बाईस सौ अस्सी जीव क्रोध के उदय वाले होते हैं, उतने ही मान के उदय वाले उतने ही माया के उदय वाले और उतने ही लोभ के उदय वाले होते हैं । अतः इन बाईस सौ अस्सी को चार से गुणा करने पर (२२८० X ४ = ६, १२० ) नौ हजार एक सौ बीस भंग होते हैं । Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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