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________________ बंधहेतु प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११ अनन्तानुबंधी के उदय में तेरह योग लेने का संकेत पूर्व में किया जा चुका है । इसलिए योग के स्थान पर तेरह का अंक स्थापित करना चाहिए। जिससे सासादन गुणस्थान के बंधहेतुओं के विचार प्रसंग में अंकस्थापना का रूप इस प्रकार होगा इन्द्रिय अविरति के स्थान पर ५, कायवध के स्थान पर उनके संयोगी भंग, कषाय के स्थान पर ४, वेद के स्थान पर ३, युगल के स्थान पर २ और योग के स्थान पर १३ वेद योग काय अविरति इन्द्रिय असंयम युगल कषाय इस प्रकार से अंक स्थापित करने के बाद सम्बन्धित विशेष स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में जितने योग हों, उन योगों के साथ पहले वेदों का गुणा करना चाहिए और गुणा करने पर जो संख्या प्राप्त हो, उसमें से एक रूप (अंक) कम कर देना चाहिए। तात्पर्य यह है कि एक-एक वेद के उदय में क्रमपूर्वक तेरह योग प्रायः संभव हैं । जैसे कि पुरुषवेद के उदय में औदारिक, वैक्रिय आदि काययोग, मनोयोग के चार और वचनयोग के चार भेद संभव हैं। इसी प्रकार स्त्रीवेद और नपुसकवेद के उदय में भी संभव हैं । इसलिए तीन वेद का तेरह से गुणा करने पर उनतालीस (३६) होते हैं। उनमें से एक रूप कम करने पर अड़तीस ३८ शेष रहेंगे । प्रश्न-वेद के साथ योगों का गुणा करके उसमें से एक संख्या कम करने का क्या कारण है ? उत्तर-एक संख्या कम करने का कारण यह है कि सासादनगुणस्थानवी जीव के नपुसकवेद के उदय में वैक्रियमिश्रकाययोग नहीं होता है-'नपुसउदए उब्वियमीसगो नत्थि'। इसका कारण यह है कि यहाँ वैक्रियमिश्रकाययोग की कार्मण के साथ विवक्षा की है। यद्यपि नपुसकवेद का उदय रहते वैक्रियमिश्रकाययोग नरकगति में ही होता है, अन्यत्र कहीं भी नहीं होता है । लेकिन सासादनगुण www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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