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________________ हेतु - प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २ दस बंधप्रत्यय सम्बन्धी भंग ३८८८० हैं । ३ ग्यारह बंधप्रत्यय सम्बन्धी भंग ८०६४० हैं । ४ बारह बंधप्रत्यय सम्बन्धी भंग १००८०० हैं | ५ तेरह बंधप्रत्यय सम्बन्धी भंग ८०६४० हैं । ६ चौदह बंधप्रत्यय सम्बन्धी भंग ४०३२० हैं । ७ पन्द्रह बंधप्रत्यय सम्बन्धी भंग ११५२० हैं ८ सोलह बंधप्रत्यय सम्बन्धी भंग १४४० हैं । १५५ इन सर्व बंधप्रत्ययों के भंगों का जोड़ ( ३६२८८०) तीन लाख बासठ हजार आठ सौ अस्सी है । यह ४ अविरत सम्यग्दृष्टिगुणस्थान- इस गुणस्थान में नौ से सोलह तक बंधप्रत्यय होते हैं । इस गुणस्थान के बंधप्रत्ययों और उनके भंगों के विषय में विशेषता जानना चाहिए कि मिश्रगुणस्थान में दस योगों की अपेक्षा जो बंध प्रत्यय और उनके भंग कहे हैं, अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में अपर्याप्त काल सम्बन्धी औदारिक मिश्र, वैक्रियमिश्र और कार्मण काययोग से अधिक वे ही प्रत्यय और भंग जानना चाहिये । इसका कारण यह है कि इस गुणस्थान में अपर्याप्तकाल में देव और नारकों की अपेक्षा वैक्रियमिश्र और कार्मण काययोग तथा वद्धायुष्क तिर्यंचों और मनुष्यों की अपेक्षा औदारिकमिश्र काययोग सम्भव है । अतएव दस के स्थान पर तेरह योगों से बंध होता है। जिससे भंग संख्या भी योग गुणाकार के बढ़ जाने से बढ़ जाती है । इसके सिवाय दूसरी विशेषता यह है कि अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानवर्ती जीव यदि बद्धायुष्क नहीं है तो उसके वैक्रियमिश्र और कार्मण काययोग देवों में ही मिलेंगे तथा उनके केवल पुरुषवेद ही सम्भव है । यदि बद्धायुष्क है तो वह नरकगति में भी जायेगा और उसके वैक्रियमिश्रकाययोग के साथ नपुंसकवेद भी रहेगा । इसलिये इस गुणस्थान के भंगों को उत्पन्न करने के लिये तीन वेदों से, दो वेदों से और एक वेद से गुणा करना चाहिए तथा पर्याप्त काल में सम्भव दस योगों से और अपर्याप्त काल में सम्भव दो योगों से और एक योग से भी गुणा करना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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