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________________ ११६ पंचसंग्रह : ४ र या वैसे पानी से स्नान की अथवा अकल्पनीय पानी को पीने की इच्छा नहीं करके उष्णताजन्य पीड़ा को समभाव से सहन करना उष्णपरीषहजय है । अत्यधिक सरदी पड़ने पर भी अकल्पनीय वस्त्र का त्याग और प्रवचनोक्त विधि का अनुसरण करके कल्पनीय वस्त्र का उपयोग करने वाले तथा पक्षी की तरह अपने एक निश्चित स्थान का निश्चय नहीं होने के कारण वृक्ष के नीचे, शून्य गृह में अथवा इसी प्रकार के अन्य किसी स्थान में रहते हुए वहाँ हिमकणों द्वारा अत्यंत शातल पवन का सम्बन्ध होने पर भी उसके प्रतिकार के लिये अग्नि आदि के सेवन करने की इच्छा नहीं करने वाले मुनिराज का पूर्वानुभूत शीत को दूर करने के कारणों को याद नहीं करते हुए शीत से उत्पन्न पोड़ा को समभाव से सहन करना शीतपरीषहजय कहलाता है । तीक्ष्ण कर्कश धार वाले छोटे-मोटे बहुत से कंकड़ों से व्याप्त शोत अथवा उष्ण पृथ्वी पर अथवा कोमल और कठिन भेद वाले चंपक आदि के पाट पर निद्रा का अनुभव करते हुए प्रवचनोक्त विधि का अनुसरण करके कठिनादि शैया से होने वाली पीड़ा को समभाव से सहन करना शैयापरीषहजय है । किसी भी प्रकार का रोग होने पर हानि-लाभ का विचार करके शास्त्रोक्त विधि के अनुसार चारित्र में स्खलना न हो, इस प्रकार की प्रतिक्रिया - औषधादि उपचार करना रोगपरीषहजय कहलाता है । तीक्ष्ण धार वाले शस्त्र, तलवार आदि के द्वारा शरीर के चीरे जाने अथवा मुद्गर आदि शस्त्रों के द्वारा ताड़ना दिये जाने पर भी मारने वाले पर अल्पमात्र कुछ भी मनोविकार नहीं करते हुए इस प्रकार का विचार करना कि यह पूर्व में बांधे हुए मेरे कर्मों का ही फल है, यह विचारे अज्ञानी मुझे कुछ भी हानि नहीं पहुंचा सकते हैं, ये तो निमित्तमात्र हैं तथा ये लोग तो मेरे विनश्वर स्वभाव वाले शरीर में पीड़ा उत्पन्न करते हैं, किन्तु मेरे ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप अंतरंग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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