SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बंधहेतु-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २१ ११७ गुणों को किसी भी प्रकार की पीड़ा नहीं पहुंचा सकते हैं, इस प्रकार की भावना भाते हुए बांस के छिलके उतारने के समान शरीर को छेदन-भेदन करने वाले पर समदर्शी मुनिराजों का वध से होने वाली पीड़ा को समभाव से सहन करना वधपरीषहजय कहलाता है। जलकायिक आदि जीवों को पीड़ा आदि न होने देने के लिए यावज्जीवन स्नान नहीं करने के व्रत को धारण करने वाले, उग्र सूर्यकिरणों के ताप से उत्पन्न पसीने के जल के सम्बन्ध से वायु से उड़ी हुई पुष्कल धूलि के लगने से जिनका शरीर अत्यन्त मलीन हो गया है, फिर भी मन में उस मल को दूर करने की इच्छा भी नहीं होती है, परन्तु सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप निर्मल जल के प्रवाह द्वारा कर्मरूप मैल को ही दूर करने में जो प्रयत्नवंत है, ऐसे मुनिराजों का मल से होने वाली पीड़ा को समभावपूर्वक सहन करना मलपरीषहजय कहलाता है। गच्छ में रहने वाले अथवा गच्छ में नहीं रहने वाले मुनिराजों को दर्भादि घास के उपयोग की आज्ञा है। उसमें जिनको स्वगुरु ने दर्भादि घास पर शयन करने की अनुज्ञा दी है, वे मुनिराज दर्भादि घास पर संथारा और उत्तरपट बिछाकर सो जाते हैं अथवा जिनके उपकरणों को चोर चुरा ले गये हैं अथवा अतिजीर्ण हो जाने से फट गये हैं, ऐसे मुनिराज अपने पास संथारा और उत्तरपट नहीं होने से दर्भादि घास बिछाकर सो जाते हैं। किन्तु वैसे घास पर सोते हुए पूर्व में अनुभव की गई मखमल आदि की शैया को स्मरण न करके उस तृण -घास के अग्र भाग आदि के न भने से होने वाली पीड़ा को समभावपूर्वक सहन करना तृणस्पर्शपरीषह-विजय कहलाता है । जिन महान आत्माओं ने बंध और मोक्ष का स्वरूप जाना है, जो पवन की तरह निःसगता धारण करते हैं, जो देश और काल का अनुसरण करके संयमविरोधी-मार्ग में जाने के त्याग करने वाले हैं तथा जो आगमोक्त मासकल्प की मर्यादा के अनुरूप विहार करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy