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________________ बंधहेतु-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २१ ११५ क्षुधापरीषह, पिपासापरीषह, उष्णपरीषह, शीतपरीषह, रोगपरीषह, मलपरीषह, तृणस्पर्शपरीषह, चर्यापरीषह और दंशमशकपरीषह, ये ग्यारह परीषह सामान्य श्रमणवर्ग में ही नहीं अपितु केवली भगवन्तों में भी अपना प्रभाव प्रदर्शित करते है । अतः कर्मोदय से इस प्रकार के परीषह जब उपस्थित हों तब मुनियों को प्रवचनोक्त विधि के अनुसार समभाव पूर्वक सहन करके उन पर विजय प्राप्त करना चाहिये । इन पर जय प्राप्त करने का मार्ग इस प्रकार है___ निर्दोष आहार की गवेषणा करने पर भी उस प्रकार का निर्दोष आहार नहीं मिलने से अथवा अल्प परिमाण में प्राप्त होने से जिनकी क्षुधा (भूख) शांत नहीं हुई है और असमय में गोचरी हेतु गमन करने की जिनका इच्छा, आकांक्षा नहीं है, आवश्यक क्रिया में किंचिन्मात्र भी स्खलना होना सह्य नहीं है, स्वाध्याय, ध्यान और भावना में जिनका मन मग्न है और प्रबल क्षुधाजन्य पीड़ा उत्पन्न होने पर भी अनेषणीय आहार का जिन्होने त्याग किया है, ऐसे मुनिराजों का अल्पमात्र में भी ग्लानि के बिना भूख से उत्पन्न हुई पीड़ा को समभाव पूर्वक सहन करना क्षुधापरीषहजय कहलाता है। इसी प्रकार से पिपासापरीषहजय के विषय में भी समझना चाहिये। सूर्य की अत्यंत उग्र किरणों के ताप द्वारा सूख जाने से जिनके पत्ते गिर गये हैं अतः छाया प्राप्त करना शक्य नहीं रहा है, ऐसे वृक्षों वाली अटवी में अथवा अन्यत्र कि जहाँ उग्र ताप लगता है, वहाँ जाते या रहते तथा अनशन आदि तपविशेष के कारण जिनके पेट में अत्यंत दाह उत्पन्न हुआ है एवं अत्यंत उष्ण और कठोर वायु के संसर्ग से तालू और गला सूख रहा है, ऐसे मुनिराजों का जीवों को पीड़ा न पहुंचाने की भावना से अप्राशुक जल में अवगाहन-स्नान करने के लिए उत १. एकादश जिने । Jain Education International For Private & Personal Use Only -तत्त्वार्थसूत्र ९/११ www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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