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________________ पंचसंग्रह : ४ उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि चतुर्थ गुणस्थान से लेकर आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक की कषायविशेष औपशमिक आदि किसी भी सम्यक्त्व से युक्त तीर्थंकर नामकर्म के बंध में हेतु होती हैं और आहारकद्विक के बंध में पूर्व में कहे गये अनुसार विशिष्ट कषायें हेतुरूप होती हैं । इसलिए किसी प्रकार का दोष नहीं है । ११२ प्रश्न – औपशमिकादि में से किसी भी सम्यक्त्व से युक्त जो कषायविशेष तीर्थकर नामकर्म के बंध में हेतु हैं, उनका क्या स्वरूप है ? अर्थात् किस प्रकार की कषायविशेष तीर्थकरनाम के बंध में कारण हैं ? उत्तर - परमात्मा के परमपवित्र और निर्दोष शासन द्वारा जगतवर्ती जीवों के उद्धार करने की भावना आदि परमगुणों के समूहयुक्त कषायविशेष तीर्थंकरनामकर्म के बंध में कारण हैं । जो इस प्रकार जानना चाहिये भविष्य में जो तीर्थकर होने वाले हैं, उनको औपशमिक आदि कोई भी सम्यक्त्व जब प्राप्त होता है तब उसके बल से सम्पूर्ण संसार के आदि, मध्य और अन्त भाग में निर्गुणता का निर्णय करके यानी सम्पूर्ण संसार में चाहे उसका कोई भी भाग हो, उसमें आत्मा को उन्नत करने वाला कोई तत्त्व नहीं है, ऐसा निर्णय करके उक्त आत्मा तथा भव्यत्व के योग से इस प्रकार का विचार करती है अहो ! यह आश्चर्य की बात है कि सकल गुणसम्पन्न तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित, स्फुरायमान तेज वाले प्रवचन के विद्यमान होते हुए भी सच्चा मार्ग महामोह रूप अंधकार द्वारा आच्छादित, व्याप्त हो रहा है । इस गहन संसार में मूढमति वाली आत्मायें भटकती ही रहती हैं, इसलिए मैं इस पवित्र प्रवचन द्वारा इन जीवों को इस संसार से पार उतारूं और इस प्रकार से विचार करके परार्थ-व्यसनी करुणादि गुणयुक्त और प्रत्येक क्षण परोपकार करने में तत्पर वह आत्मा सदैव जिस-जिस प्रकार से भी दूसरों का उपकार हो सकता है, दूसरों का भला हो सकता है, उनका उद्धार हो सकता है, तदनुरूप प्रवृत्ति करती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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