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बंधहेतु - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २०
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इसी प्रकार आहारकद्विकका बंधहेतु संयम कहा जाये तो क्षीणमोह आदि गुणस्थानों में भी उसके बंध का प्रसंग प्राप्त होगा। क्योंकि वहाँ विशेषतः अतिनिर्मल चारित्र का सद्भाव है किन्तु वहाँ बंध तो . होता नहीं है। अतएव आहारकद्विक का संयम बंधहेतु नहीं माना जा सकता है ।
समाधान – उक्त शंका का समाधान करते हुए आचार्यश्री समग्र स्थिति को स्पष्ट करते हैं
हमारे अभिप्राय को न समझ सकने के कारण उक्त तर्क असंगत हैं। क्योंकि 'तित्थयराहाराणं बंधे सम्मत्तसंजमा हेऊ' पद द्वारा साक्षात् सम्यक्त्व और संयम ही मात्र तीर्थंकर और आहारकद्विक के बंधहेतु रूप में नहीं कहे हैं, किन्तु सहकारी कारणभूत' विशेषहेतु रूप में उनका निर्देश किया है। मूल कारण तो इन दोनों का कषायविशेष ही है । जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है - ' सेसा उ कसाएहि ' - - शेष प्रकृतियों का कषायरूप बंधहेतु के द्वारा बंध होता है और तीर्थंकरनामकर्म के बंध में हेतुरूप से होने वाली कषाय औपशमिक आदि किसी भी सम्यक्त्वरहित होती नहीं हैं । अर्थात् औपशमिक आदि किसी भी सम्यक्त्व से रहित मात्र कषायविशेष ही तीर्थंकरनाम के बंध में हेतुभूत नहीं होती हैं तथा औपशमिकादि किसी भी सम्यक्त्वयुक्त कषायविशेष सभी जीवों को उन प्रकृतियों के बंध में हेतु नहीं होती हैं और अपूर्वकरण के छठे भाग के बाद भी बंधहेतु रूप में नही होती हैं तथा अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण के छठे भाग तक में हो सम्भव कतिपय प्रतिनियत कषायविशेष ही आहारकद्विक के बंध में हेतु हैं ।
१ साथ रहकर जो कारण रूप में हो उसे सहकारी कारण कहते हैं । विशिष्ट कषायरूप हेतु के साथ रहकर सम्यक्त्व और संयम तीर्थंकर और आहाद्वि के बंधहेतु होते हैं, इसलिए सम्यक्त्व और संयम सहकारी कारण कहलाते हैं ।
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