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________________ ११० पंचसंग्रह : ४ प्रकृतियां विशिष्ट हैं, अतः इनके बंध में कषाय के साथ विशेष निमित्तान्तर की अपेक्षा होने से पृथक् निर्देश किया है__ तीर्थंकरनाम और आहारकद्विक के बंध में अनुक्रम से सम्यक्त्व तथा संयम हेतु हैं । यानी तीर्थकरनाम के बंध में सम्यक्त्व और आहारकद्विक के बंध में संयम हेतु है। उक्त कथन में तीर्थकरनामकर्म का बंध सम्यक्त्व और आहारकद्विक का संयम सापेक्ष मानने पर जिज्ञासु अपना तर्क प्रस्तुत करता है शंका-यदि आप सम्यक्त्व को तीर्थंकरनामकर्म का बंधहेतु कहते हैं तो क्या औपशमिक सम्यक्त्व हेतु है अथवा क्षायिक है या क्षायोपशमिक है ? लेकिन इन तीनों में दोषापत्ति है। जो इस प्रकार जानना चाहिये___ यदि तीर्थकरनामकर्म के बंध में औपशमिक सम्यक्त्व को बंधहेतु के रूप में माना जाये तो उपशांतमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में भी औपशमिक सम्यक्त्व का सद्भाव होने से वहाँ भी तीर्थकरनामकर्म का बंध मानना पड़ेगा। यदि क्षायिक सम्यक्त्व को बंधहेतु कहो तो सिद्धों में भी उसके बंध का प्रसंग सम्भव मानना पड़ेगा। क्योंकि उनके क्षायिक सम्यक्त्व ही पाया जाता है। यदि क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहो तो अपूर्वकरणगुणस्थान के प्रथम समय में उसके बंधविच्छेद का प्रसंग उपस्थित होगा। क्योंकि उस समय क्षायोपशमिक सम्यक्त्व नहीं होता है और तीर्थकरनाम. कर्म के बंध का विच्छेद तो अपूर्वकरण गुणस्थान के छ? भाग में होता है। __ इसलिए कोई भी सम्यक्त्व तीर्थंकरनामकर्म का बंधहेतु नहीं माना जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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