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________________ बंधहेतु - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६ १०७ ( ६+६+६+८= ३२) बत्तीस भंग जानना चाहिये तथा अपर्याप्त और पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय के कुल मिलाकर बंधहेतुओं के ( ९६+ ३२- १२८) एक सौ अट्ठाईस भंग होते हैं । इस प्रकार से जीवस्थानों में बंधहेतु और उनके भंगों को जानना चाहिये । अब अन्वयव्यतिरेक का अनुसरण करके विशेष रूप से जो कर्मप्रकृतियां जिस बंधहेतु वाली हैं, उनका प्रतिपादन करते हैं । कर्मप्रकृतियों के विशेष बंधहेतु य सोलस मिच्छनिमित्ता बज्झहि पणतीस अविरईए य । सेसा उकसाएहि जोगेहि सायवेयणीयं ॥ १६॥ शब्दार्थ --- सोलस - सोलह, मिच्छनिमित्ता- मिथ्यात्व के निमित्त से, बज्झहि - बंधती हैं, पणतीस - पैंतीस, अविरईए— अविरति से, य - और, सेसा - शेष, उ — और, कसाएहि — कषाय द्वारा, जोगेहि-योग द्वारा, य और, सायवेयणीय - सातावेदनीय | गाथार्थ - सोलह प्रकृतियां मिथ्यात्व के निमित्त से और पैंतीस प्रकृतियां अविरति से और शेष प्रकृतियां कषाय से बंधती हैं एवं सातावेदनीय योगरूप हेतु से बंधती है । विशेषार्थ - सामान्य से मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चारों सभी कर्मप्रकृतियों के बंधहेतु हैं । अर्थात् इन चारों हेतुओं के द्वारा सभी प्रकृतियों का प्रतिक्षण संसारी जीव के बंध होता रहता है । लेकिन इन हेतुओं में से भी किस के द्वारा मुख्यतया कितनीकितनी प्रकृतियों का बंध हो सकता है, इस बात को गाथा में स्पष्ट किया है 1 'सोलस मिच्छनिमित्ता' - अर्थात् सोलह प्रकृतियों के बंध में मिथ्यात्वरूप हेतु की मुख्यता है। यानी मिथ्यात्व न हो और शेष उत्तरवर्ती अविरत आदि बंधहेतु हों तो उन अविरति आदि उत्तर तुओं के विद्यमान रहने पर भी उनका बंध नहीं होता है । इसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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