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________________ १०८ पंचसंग्रह : ४ प्रकार से अन्य उत्तर के बंधहेतुओं के लिए भी समझना चाहिये । अतएव इस प्रकार के अन्वयव्यतिरेक1 का विचार करने पर नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु, एकेन्द्रिय आदि जातिचतुष्क, मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, हुंडसंस्थान, सेवार्तसंहनन, हुंडसंस्थान, सेवार्तसंहनन, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण और अपर्याप्तनाम ये सोलह प्रकृतियां मिथ्यात्वरूप हेतु के विद्यमान रहने पर ही बंधती हैं और मिथ्यात्वरूप हेतु के अभाव में नहीं बंधती हैं । उक्त सोलह प्रकृतियां मिथ्यात्वगुणस्थान में बंधती हैं और मिथ्यात्वगुणस्थान में मिथ्यात्व आदि योग पर्यन्त चारों बंधहेतु होते हैं । अतएव इन सोलह प्रकृतियों के बंध में अविरति आदि हेतुओं का भी उपयोग होता है लेकिन उनके साथ अन्वयव्यतिरेक सम्बन्ध घटित नहीं होता है, मिथ्यात्व के साथ ही घटित होता है । क्योंकि जहाँ तक मिथ्यात्व रूप हेतु है, वहीं तक ये प्रकृतियां बंधती हैं। इसलिए इन सोलह प्रकृतियों के बंध में मिथ्यात्व मुख्य हेतु है और अविरति आदि गौण हेतु हैं । इसी प्रकार अन्यत्र भी समझना चाहिये । अतएव ' पणतीस अविरईए य' अर्थात् स्त्यानद्धित्रिक, स्त्रीवेद, अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क, तिर्यंचत्रिक, पहले और अन्तिम को छोड़कर शेष मध्य के चार संस्थान, आदि के पांच संहनन, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, अनादेय, दुःस्वर, नीचगोत्र, अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क, मनुष्यत्रिक और औदारिकद्विक रूप पैंतीस प्रकृतियां अविरति के निमित्त से बंधती हैं। यानी इन प्रकृतियों के बंध का मुख्य हेतु अविरति है तथा 'सेसा उकसाएहि ' - शेष प्रकृतियां यानी सातावेदनीय के बिना शेष अड़सठ प्रकृतियां कषाय द्वारा बंधती हैं। क्योंकि कषाय के साथ अन्वयव्यतिरेक घटित होने से इन अड़सठ प्रकृतियों १ कारण के सद्भाव में कार्य के सद्भाव को अन्वय और कारण के अभाव में कार्य के अभाव को व्यतिरेक कहते हैं । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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