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________________ २ पंचसंग्रह : ४ गुणस्थान में एक रूप कम करने पर 1 आठ (८) शेष रहे । इन आठ का पांच इन्द्रिय-अविरत से गुणा करने पर ( ८५ = ४०) चालीस हुए । इनका युगलद्विक से गुणा करने पर (४० x २ = ८० ) अस्सी हुए । जिनका चार कषाय से गुणा करने पर ( ८० X ४ = ३२० ) तीन सौ बीस हुए। जिससे सासादनगुणस्थान में संज्ञी अपर्याप्त के पन्द्रह . बंधहेतुओं के तीन सौ बीस (३२०) भंग जानना चाहिये । १. पूर्वोक्त पन्द्रह बंधहेतुओं में भय को मिलाने पर होने वाले सोलह बंधहेतुओं के भी तीन सौ बीस (३२०) भंग जानना चाहिये । २. अथवा जुगुप्सा के मिलाने पर भी सोलह बंधहेतुओं के तीन सौ बीस (३२०) भंग समझ लेना चाहिये । भय, जुगुप्सा को युगपत् मिलाने से सत्रह बंधहेतु होते हैं । इनके भी तीन सौ बीस (३२० ) भंग होते हैं । इस प्रकार सासादनगुणस्थान में संज्ञी अपर्याप्त के कुल मिलाकर (३२० + ३२० + ३२० + ३२० = १२८०) बारह सौ अस्सी भंग जानना चाहिये । मिथ्यादृष्टि संज्ञी अपर्याप्त के पूर्वोक्त पन्द्रह हेतुओं में मिथ्यात्व के उदय का समावेश होने से जघन्यपद में सोलह बंधहेतु होते हैं यहाँ योग पांच होते हैं। क्योंकि पूर्व में बताया जा चुका है कि सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि संज्ञी अपर्याप्त के वैक्रिय सहित पांच योग होते हैं । अतएव अंक स्थापना पूर्ववत् करके मिथ्यात्व का उदय होने से और वह भी अनाभोगिकमिथ्यात्व का होने से मिथ्यात्व के स्थान पर एक के अंक की स्थापना करना चाहिये । जिससे अंकस्थापना इस प्रकार होगी ९ नपुंसकवेदी के क्रियमिश्र काययोग नहीं होने से एक रूप का निर्देश किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only कम करने www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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