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________________ बंधहेतु-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८ ६३ मिथ्यात्व कायवध वेद योग इन्द्रिय अविरत युगल कषाय इस अंकस्थापना में तीन वेदों के साथ पांच योगों का गुणा करने से (३४५=१५) पन्द्रह हुए। उनका पांच इन्द्रियों की अविरति से गुणा करने पर (१५४५=७५) पचहत्तर हुए। जिनको युगलद्विक से गुणा करने पर (७५४२=१५०) एक सौ पचास हुए और इनको भी चार कषाय से गुणा करने पर (१५०४४=६००) छह सौ होते हैं। जो संज्ञी अपर्याप्त मिथ्या दृष्टि के सोलह बंधहेतु के भंगों की संख्या है। १. उक्त बंधहेतुओं में भय को मिलाने पर सत्रह बंधहेतु होते हैं। इनके भी उतने ही अर्थात् छह सौ (६००) भंग जानना चाहिये। २. अथवा जुगुप्सा को मिलाने पर भी सत्रह हेतु होते हैं। इनके भी पूर्ववत छह सौ (६००) भंग जाना चाहिये । __ भय, जुगुप्सा को युगपत् मिलाने पर अठारह बंधहेतु होते हैं। . इनके भी छह सौ (६००) भंग जानना चाहिये।। इस प्रकार कुल मिलाकर संज्ञी अपर्याप्त मिथ्या दृष्टि के (६०० + ६००+६००+६०० =२४००) चौबीस सौ भंग होते हैं और तीनों गुणस्थानों के सभी मिलकर (१७६०+१२८०+२४०० =५४४०) च उवन सौ चालीस भंग जानना चाहिये। अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय के बंधहेतु के भंग संज्ञी अपर्याप्त के बंधहेतुओं के भंगों को बतलाने क पश्चात् अब अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय के बधहेतुओं के भंगों को बतलाते हैं असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त के सासादनगुणस्थान में जघन्य से पन्द्रह बंधहेतु होते हैं। जो इस प्रकार हैं-छह काय का वध, पांच इन्द्रिय की अविरत में से किसी एक इन्द्रिय की अविरत, युगलद्विक में से कोई एक युगल, वेदत्रिक में से कोई एक वेद, अनन्तानुबंधी आदि कषायों में से कोई एक क्रोधादि चार और कार्मण तथा औदारिकमिश्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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