SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बंधहेतु-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १८ इस प्रकार से अंकस्थापना करने के पश्चात् सर्वप्रथम तीन वेद के साथ पांच योगों का गुणा करने पर (३४५=१५) पन्द्रह हुए। इनमें से अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में चार रूप कम करने का संकेत पूर्व में (गाथा १२ में) किया गया है। अतः शेष ग्यारह रहे । इन ग्यारह को पांच इन्द्रियों की अविरत से गुणा करने पर (११४५=५५) पचपन हुए। इनको युगलद्विक से गुणा करने पर (५५४२=११०) एक सौ दस हुए और इन एक सौ दस को क्रोधादि चार कषायों के साथ गुणा करने पर (११०x४=४४०) चार सौ चालीस होते हैं। ये संज्ञी अपर्याप्त सम्यग्दृष्टि के चौदह बंधहेतुओं के भंग हैं। १. इन चौदह बंधहेतुओं में भय को मिलाने पर पन्द्रह हेतु होते हैं । उनके भी चार सौ चालीस (४४०) ही भंग हुए। २. अथवा जुगुप्सा को मिलाने पर भी होने वाले पन्द्रह हेतुओं के भी चार सौ चालीस (४४०) भंग होते हैं । पूर्वोक्त जघन्यपदभावी चौदह बंधहेतुओं में भय और जुगुप्सा इन दोनों को युगपत् मिलाने से सोलह हेतु होते हैं। उनके भी चार सौ चालीस (४४०) भंग होते हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर अविरतसम्यग्दृष्टि अपर्याप्त संज्ञी के (४४०+४४०+४४०+४४०=१७६०) सत्रह सौ साठ भंग होते हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि अपर्याप्त संज्ञी के कार्मण, औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र ये तीन योग होते हैं। अतः योग के स्थान पर तीन का अंक रखना चाहिये। इस गुणस्थान वाले के अनन्तानुबंधी का उदय होने से जघन्यपद में पन्द्रह बंधहेतु होते हैं। उनकी अंकस्थापना इस प्रकार करना चाहिये कायवध वेद योग इन्द्रिय-अविरत युगल कषाय इनमें से पहले तीन वेद के साथ तीन योग का गुणा करने पर नौ (३४३=६) होते हैं। इनमें से पूर्व में बताये गये अनुसार सासादन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy