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पंचसंग्रह : ४
यदि गुणस्थानों का विचार किया जाये तो करण - अपर्याप्त संज्ञी के यिष्टि, सासादन और अविरतसम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थान होते हैं तथा करण - अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में मिथ्यादृष्टि और सासादन ये दो गुणस्थान होते हैं । जिसका सकेत गाथा के प्रारम्भ में 'एवं च' पद में 'एवं' के अनन्तर आगत 'च' शब्द से किया गया समझना चाहिये तथा पर्याप्त अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय और पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और असज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में मिथ्यादृष्टि रूप एक गुणस्थान होता है। लेकिन जब एकेन्द्रियादि पूर्वोक्त जीवों में सासादन गुणस्थान होता है तब वहाँ मिथ्यात्व नहीं होने से बंधहेतु पन्द्रह होते हैं । उस समय कार्मण और औदारिकमिश्र ये दो योग होते हैं। क्योंकि संज्ञी के सिवाय अन्य जीवों को सासादनत्व अपर्याप्त अवस्था में ही होता है, अन्य काल में नहीं होता है और अपर्याप्त संज्ञी के सिवाय शेष जीवों के अपर्याप्त अवस्था में पूर्वोक्त दो योग ही होते हैं और यह पहले कहा जा चुका है कि अपर्याप्त संज्ञी में तो कार्मण, औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र ये तीन योग होते हैं ।
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प्रश्न -- सासादनभाव में भी शेष पर्याप्तियों से अपर्याप्त और शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त के औदारिककाययोग संभव है । इसलिये बादर एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और असज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के सासादनगुणस्थान में तीन योग न कह कर दो योग ही क्यों बताये हैं ?
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उत्तर- दो योग बताने का कारण यह है कि शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त अवस्था में सासादनगुणस्थान होता ही नहीं है । क्योंकि सासादनभाव का काल मात्र छह आवलिका है और शरीरपर्याप्ति से पर्याप्तत्व तो अन्तमुहूर्त काल में होता है। जिससे शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने से पहले ही सासादनभाव चला जाता है । इसीलिये उन जीवों को सासादनभाव में पूर्वोक्त दो योग ही पाये जाते हैं और मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में जब तक शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती है,
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