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________________ बंधहेतु-प्ररूपणा अधिकार : गाया १८ ८६ तब तक कार्मण और औदारिकमिश्र यही दो योग होते हैं और शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद औदारिककाययोग होता है। जिससे अपर्याप्त अवस्था में तीन योग माने जाते हैं। अब इसी बात को स्वयं ग्रन्थकार आचार्य स्पष्ट करते हुए जीवस्थानों में बंधहेतु और उनके भंगों का कथन करते हैं उरलेण तिन्नि छण्हं सरोरपज्जत्तयाण मिच्छाणं । सविउव्वेण सन्निस्स सम्ममिच्छस्स वा पंच ॥१८॥ शब्दार्थ-उरलेग-औदारिक के साथ, तिन्नि-तीन, छण्ह-छह जीवस्थानों में, सरीरपज्जत्तयाण-शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त, मिच्छाणं-मिथ्यादृष्टि, सवि उव्वेण-क्रिय काययोग सहित, सन्निस्स--संज्ञी के, सम्म-सम्यग्दृष्टि, मिच्छस्स-मिथ्यादृष्टि के, वा-अथवा, पंच-पांच । ___ गाथार्थ-शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त मिथ्या दृष्टि छह जीवस्थानों में औदारिककाययोग के साथ तीन योग और सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्या दृष्टि शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त संज्ञी जीवों के वैक्रियकाययोग सहित पांच योग होते हैं। विशेषार्थ-गाथा में शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त और शेष पर्याप्तियों से अपर्याप्त एकेन्द्रिय आदि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवभेदों में बंधहेतु और उनके भंगों का विचार किया गया है। ___ शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त एवं शेष पर्याप्तियों से अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि सूक्ष्म-बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय इन छह जीवस्थानों में औदारिककाययोग के साथ तीन योग होते हैं- 'उरलेण तिन्नि छण्हं' । अतः इन अपर्याप्त छह जीवस्थानों में मिथ्या दृष्टिगुणस्थान की अपेक्षा बंधहेतुओं के भंगों का विचार करने पर अंकस्थापना में योग के स्थान पर तीन रखना चाहिये तथा संज्ञो अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि जीवों के शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले पूर्वोक्त वैक्रियमिश्र, औदारिक और कार्मण ये तीन योग होते हैं और शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने के पश्चात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001901
Book TitlePanchsangraha Part 04
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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