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बंधहेतु-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७
इस प्रकार से जीवस्थानों में बंधहेतुओं सम्बन्धी विशेषताओं की सामान्य रूपरेखा जानना चाहिए। अब इसी प्रसंग में एकेन्द्रिय जीवों में सम्भव योगों और संज्ञी अपर्याप्त आदि में प्राप्त गुणस्थानों को बतलाते हैं। एकेन्द्रिय जीवों में संभव योग
एवं च अपज्जाणं बायरसुहमाण पज्जयाण पुणो।
तिण्णेक्ककायजोगा सण्णिअपज्जे गुणा तिन्नि ॥१७॥ शब्दार्थ-एवं-इसी तरह, च-और, अपज्जाणं-अपर्याप्त, बायरसुहमाण-बादर और सूक्ष्म के, पज्जयाण-पर्याप्त के, पुणो-पुनः, तिण्णेक्कतीन और एक, काययोगा-काययोग, सण्णिअपज्जे-संज्ञी अपर्याप्त के, गुणा-गुणस्थान, तिन्न-तीन ।।
गाथार्थ-इसी तरह अर्थात् असंज्ञी की तरह बादर और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त के दो योग होते हैं । पर्याप्त बादर और सूक्ष्म एकेन्द्रिय के क्रमशः तीन और एक योग होता है तथा अपर्याप्त संज्ञी के तीन गुणस्थान होते हैं।
विशेषार्थ- गाथा में बादर, सूक्ष्म एकेन्द्रिय के पर्याप्त अपर्याप्त अवस्था में प्राप्त योगों एवं अपर्याप्त संज्ञी में पाये जाने वाले गुणस्थानों का निर्देश किया है । जिसका विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है
पूर्व गाथा में जैसे अपर्याप्त असंज्ञी और विकलेन्द्रियों में दो योग बतलाये हैं, उसी प्रकार अपर्याप्त बादर और सूक्ष्म एकेन्द्रिय में भी कार्मण और औदारिकमिश्र ये दो योग समझाना चाहिये- ‘एवं च अपज्जाणं बायरसुहुमाण'। किन्तु पर्याप्त बादर और सूक्ष्म एकेन्द्रिय के अनुक्रम से तोन और एक योग होता है। उनमें से पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय के औदारिक, वैक्रिय और वैक्रियमिश्र ये तीन योग होते हैं
और पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय के औदारिक काययोग रूप एक योग ही होता है । इसलिये उन-उन जीवों की अपेक्षा से बंधहेतुओं के भंगों का विचार करने के प्रसंग में योगस्थान में तीन और एक का अंक रखना चाहिये।
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