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पंचसंग्रह : ४ पांच, चतुरिन्द्रिय के चार, त्रीन्द्रिय के तीन, द्वीन्द्रिय के दो और एकेन्द्रिय जीवों के एक होने से उन उन जीवों के बंधहेतु के विचारप्रसंग में इन्द्रिय की अविरति के स्थान में जो जीव जितनी इन्द्रिय वाला हो उतनी संख्या रखना चाहिये ।
संज्ञी अपर्याप्त के सिवाय शेष बारह जीवभेदों में अनन्तानुबंधी आदि चारों कषायें होने से कषाय के स्थान पर चार की संख्या तथा वेद सिर्फ एक नपुसक ही होने से वेद के स्थान पर एक का अंक किन्तु असंज्ञी पंचेन्द्रिय के द्रव्य से तीनों वेद होने से असंज्ञी पंचेन्द्रिय के भंगों के विचार में वेद के स्थान में तीन का अंक और इन सभी तेरह जीवस्थानों में दोनों युगल होने से युगल के स्थान पर दो का अंक रखना चाहिए।
संज्ञी अपर्याप्त में यदि लब्धि से उनकी विवक्षा की जाये तो एकेन्द्रिय आदि को कषायादि जिस प्रकार से बताई गई हैं, उसी प्रकार समझना चाहिए और करण-अपर्याप्त संज्ञी में पर्याप्त संज्ञी की तरह अनन्तानुबंधी का उदय नहीं भी होता है, अतः जब न हो तब कषाय के स्थान पर अप्रत्याख्यानावरण आदि तीनों और उदय हो तब चारों कषाय रखना चाहिए। तीनों वेदों का उदय उनको होने से वेद के स्थान पर तीन एवं युगल के स्थान पर दो का अंक रखना चाहिए।
१ स्वोपज्ञवृत्ति में तो प्रत्येक जीवभेदों के तीन वेद का उदय मानकर भंग
बतलाये हैं, जिससे वेद के स्थान पर तीन का अंक रखा है । परन्तु अन्य ग्रन्थों में चतुरिन्द्रिय तक के जीवों के मात्र नपुंसकवेद का उदय कहा है । अतएव जब चतुरिन्द्रिय तक के भंगों का विचार करना हो तब वेद के स्थान पर एक का अंक रखना चाहिये। परमार्थतः तो असंज्ञी पंचेन्द्रिय भी नपुसकवेद वाले ही होते हैं परन्तु बाह्य आकार की दृष्टि से वे तीनों वेद वाले होते हैं। जिससे यहाँ असंज्ञी के भंगों के विचार में वेद के स्थान पर तीन का अंक रखना चाहिये।
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