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बंधहेतु - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६
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नहीं होने से हिंसक ही है। तो फिर उसे सामान्यतः छहों काय का हिंसक क्यों नहीं कहा ? किसी समय एक काय का, किसी समय दो आदि काय का हिंसक क्यों बताया ?
उत्तर - यह दोषापत्ति मिथ्यात्वगुणस्थान के भंगों में सम्भव नहीं है । इसका कारण यह है कि संज्ञी जीव मन वाले हैं और मन वाले होने से उनको किसी समय कोई एक काय के प्रति तीव्र, तीव्रतर परिणाम होते हैं । उन संज्ञी जीवों के ऐसा विकल्प होता है कि मुझे अमुक एक काय की हिंसा करना है, अमुक दो काय की हिंसा करना है, अथवा अमुक अमुक तीन काय का घात करना है। इस प्रकार बुद्धिपूर्वक अमुक-अमुक काय की हिंसा में वे प्रवृत्त होते हैं । इसलिए उस अपेक्षा छह काय के एक, दो आदि संयोग से बनने वाले भंगों की प्ररूपणा वहाँ घटित होती है । परन्तु असंज्ञी जीवों में तो मन के अभाव में उस प्रकार का संकल्प न होने से सभी काय के जीवों के प्रति अविरति रूप सर्वदा एक जैसे परिणाम ही पाये जाते हैं । इस कारण उनके सदैव छहों काय का वधरूप एक भंग ही होता है । जिससे यहाँ काय के स्थान पर एक का अंक रखने का संकेत किया है ।
'ति जोग सन्निम्मि' अर्थात् अपर्याप्त संज्ञी में कार्मण, औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र ये तीन योग होते हैं. और दूसरे योग नहीं होते हैं । अतः अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय के बंधहेतु के भंगों के विचार में योग के स्थान पर तीन का अंक रखना चाहिए किन्तु 'असन्नि विगलेसु दो जोगा' पर्याप्त, अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में दो, दो योग समझना चाहिए। जो इस प्रकार कि अपर्याप्त अवस्था में कार्मण और औदारिकमिश्र ये दो योग और पर्याप्त दशा में औदारिक काययोग तथा असत्यामृषावचनयोग ये दो योग होते हैं । अतः उनके बंधहेतु के विचार में योग के स्थान पर दो का अंक रखना चाहिए ।
'इंदियसंखा सुगमा' अर्थात् तेरह जीवस्थानों में इन्द्रियों की संख्या प्रसिद्ध होने से सुगम है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि पंचेन्द्रिय के
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