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पंचसंग्रह : ४
एक और छहों काय का वध होता है। इन्द्रियों की संख्या सुगम है तथा असंज्ञी और विकलेन्द्रियों में योग दो-दो होते हैं।
विशेषार्थ-पूर्व में यह संकेत किया गया है कि गुणस्थानों में बताये गये बंधहेतुओं के भेदों को संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त में भी समझना चाहिये । अतः उसको छोड़कर शेष तेरह जीवस्थानों में मिथ्यात्व आदि बंधहेतुओं के सम्भव अवान्तर भेदों को गाथा में बतलाया है.... 'मिच्छत्तं एग चिय' अर्थात् सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त पर्यन्त तेरह जीवस्थानों में मिथ्यात्व के पांच भेदों में से एक-अनाभोगिक मिथ्यात्व ही होता है, शेष भेद सम्भव नहीं हैं । इसलिए अंकस्थापना में मिथ्यात्व के स्थान में एक (१) अंक रखना चाहिये। ___'छक्कायवहो' अर्थात् कायअविरति के छहों भेद होते हैं। परन्तु वे एक-दो कायादि भेद रूप भंगों की प्ररूपणा के विषयभूत नहीं होते हैं । क्योंकि ये सभी जीव छहों काय के प्रति अविरति परिणाम वाले होते हैं, जिससे उनको प्रतिसमय छहों काय की हिंसा होती रहती है।
प्रश्न-पूर्व में मिथ्या दृष्टि आदि गुणस्थानों में जो कायवध के भंगों की प्ररूपणा की है, वह किस तरह सम्भव है ? क्योंकि असंज्ञी जीव कायहिंसा से विरत नहीं होने के कारण सामान्यतः छहों काय के हिंसक हैं, उसी प्रकार मिथ्या दृष्टि भी छह काय की हिंसा से विरत
१ आचार्य मलयगिरिसूरि ने एकेन्द्रियादि सभी असंज्ञी जीवों के अनाभोगिक मिथ्यात्व बतलाया है। लेकिन स्वोपज्ञवृत्ति में अनभिग्रहीत मिथ्यात्व का संकेत किया है । इसी अधिकार (बंधहेतु-अधिकार) की पांचवीं गाथा के अन्त में इस प्रकार कहा है-पर्याप्त संज्ञी जीवस्थान में ही यह विशेष सम्भव हैं, शेष सभी के एक अनभिग्रहीत मिथ्यात्व ही होता है तथा यहाँ भी 'मिथ्यात्वमेक मेवानभिग्रहीतं द्वादशानामसंज्ञिनाम्' इस प्रकार कहा है। विज्ञजन इसका स्पष्टीकरण करने की कृपा करें।
-संपादक
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