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बंधव्य - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८
भिन्न शरीर वाले हैं तथा जैसे वे सरसों संयोजक द्रव्य के सम्बन्ध की विशेषता से परस्पर मिश्रित हुए हैं, उसी प्रकार मूल आदि में रहे हुए. प्रत्येकशरीरी जीव भी तथा प्रकार के प्रत्येकनामकर्म के उदय से परस्पर संहत - एकाकार रूप में परिणत हुए हैं । "
प्रश्न - अनन्त जीवों का एक शरीर कैसे सम्भव हो सकता है ? क्योंकि जो जीव पहले उत्पन्न हुआ, उसने उस शरीर को बनाया और उसके साथ परस्पर सम्बद्ध होने के द्वारा सर्वात्मना अपना बनाया ! इसलिए उस शरीर में पहले उत्पन्न हुए जीव का अधिकार होना चाहिये, अन्य जीवों का अधिकार कैसे हो सकता है ? देवदत्त के शरीर में जैसे देवदत्त का जीव ही पूर्णतया सम्पूर्ण शरीर के साथ सम्बन्ध रखता है, उसी प्रकार दूसरे जीव उस सम्पूर्ण शरीर के साथ कोई सम्बन्ध रखते हुए उत्पन्न नहीं होते हैं। क्योंकि वैसा दिखलाई नहीं देता है । कदाचित् अन्य जीवों के उत्पन्न होने का अवकाश हो तो भी जिस जीव ने उस शरीर को उत्पन्न करके परस्पर जोड़ने के द्वारा अपना बनाया, वह जीव ही उस शरीर में मुख्य है, इसलिए उसके सम्बन्ध से ही पर्याप्त - अपर्याप्त व्यवस्था, प्राणापानादि के योग्य पुद् -- गलों का ग्रहण आदि होना चाहिये, किन्तु अन्य जीवों के सम्बन्ध से यह सब नहीं होना चाहिये । साधारण में तो वैसा है नहीं । क्योंकि उसमें प्राणापानादि व्यवस्था जो एक की है, वह अनन्त जीवों की और. जो अनन्तों की है, वह एक की होती है तो यह कैसे हो सकता है ?
उत्तर - साधारणनामकर्म के अर्थ के आशय को न समझने के कारण उक्त कथन योग्य नहीं है । क्योंकि साधारणनामकर्म के उदय वाले अनन्त जीव तथाप्रकार के कर्मोदय के सामर्थ्य से एक साथ ही
१ जह सगलसरिसवाणं सिलेसमिस्साण वट्टिया वट्टी | पत्त यसरीराणं तह हुति सरीरसंघाया ॥ १॥ जह वा तिलपप्पडिया, बहुएहि तिलेहि मीसिया संती । पत्त यसरीराणं तह होंति सरीरसंघाया ॥२॥
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-प्रज्ञाानासूत्र
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