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पंचसंग्रह : ३ इन-इन वृक्षों के मूल, कन्द, स्कन्ध, छाल, शाखा, प्रशाखा और प्रवाल आदि असंख्य जीव वाले हैं और पत्त' एक-एक जीव वाले हैं इत्यादि । परन्तु मूल से लेकर फल तक सभी अवयव देवदत्त के शरीर की तरह एक शरीराकार रूप में दिखलाई देते हैं। अर्थात् जैसे देवदत्त नामक किसी व्यक्ति का शरीर अखण्ड एक स्वरूप वाला ज्ञात होता है, उसी प्रकार मूल आदि सभी अवयव भी अखण्ड एक स्वरूप से ज्ञात होते हैं । इसलिए कपित्थ आदि वृक्ष अखण्ड एक शरीर वाले हैं और असंख्य जीव वाले हैं। यानी उन कपित्थ आदि का शरीर तो एक है किन्तु उनमें असंख्य जीव हैं। इस कारण उनको प्रत्येक शरीरी कैसे कहा जा सकता है ? क्योंकि एक शरीर में एक जीव नहीं किन्तु एक शरीर में असंख्यात जीव हैं।
उत्तर-यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उन मूल आदि में भी असंख्यात जीवों के भिन्न-भिन्न शरीर माने गये हैं।
प्रश्न- शास्त्र के कथानुसार जब वे मूलादि सभी भिन्न-भिन्न शरीर वाले हैं तब वे एकाकार रूप में कैसे दिखलाई देते हैं ?
उत्तर-केवल श्लेषद्रव्य से मिश्रित एकाकार रूप में हुए बहुत से सरसों की बत्ती के सामन प्रबल रागद्वेष से संचित विचित्र प्रत्येकनामकर्म के पुद्गलों के उदय से उन सभी जीवों का शरीर भिन्न-भिन्न होने पर भी परस्पर विमिश्र-एकाकार शरीर वाला होता है । अथवा बहुत से तिलों में उनको मिश्रित करने वाले गुड़ आदि डालकर तिलपपड़ी बनाई जाये तो जैसे वे एकाकार हुए प्रत्येक तिल भिन्न-भिन्न होने पर भी एक पिंडरूप में दिखते हैं। उसी प्रकार विचित्र प्रत्येकनामकर्म के उदय से मूल आदि प्रत्येक भिन्न-भिन्न शरीर वाले होने पर भी एकाकार रूप में दिखलाई देते हैं । इस कथन का तात्पर्य यह है कि उस वर्तिका के सरसों परस्पर भिन्न हैं, एकाकार नहीं हैं, क्योंकि वे सभी पृथक्पृथक् रूप में दिखते हैं। इसी प्रकार वृक्षादि में भी मूल आदि प्रत्येक अवयव में असंख्यात जीव होते हैं, लेकिन वे सभी परस्पर भिन्न
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