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पंचसंग्रह : ३ ऊँट आदि जैसी अशुभ गति-चाल की प्राप्ति हो उसे अशुभ विहायोगति नामकर्म कहते हैं।
इस प्रकार से चौदह पिंडप्रकृतियों के लक्षण जानना चाहिये । इन चौदह पिंडप्रकृतियों के अवान्तर भेद पैंसठ होते हैं।
अब प्रत्येक प्रकृतियों को बतलाते हैं। उनके दो भेद ये हैं--(१) सप्रतिपक्ष और (२) अप्रतिपक्ष । जिसकी विरोधिनी प्रकृति तो हो किन्तु अवान्तर भेद नहीं हो सकते हैं, उसे सप्रतिपक्ष प्रत्येक प्रकृति कहते हैं जैसे त्रस-स्थावर आदि तथा जिसकी विरोधिनी प्रकृति एवं अवान्तर भेद भी न हों उसे अप्रतिपक्ष प्रत्येक प्रकृति कहते हैं, जैसे कि अगुरुलघु इत्यादि । इन दो प्रकार की प्रत्येक प्रकृतियों में अल्पवक्तव्य होने से पहले अप्रतिपक्ष प्रत्येक प्रकृतियों का स्वरूप बतलाते हैं
अगुरुलहु उवघायं परघाउस्सासआयवुज्जोयं । निम्माण तित्थनामं चोइस अड पिंडपत्त या ।।७।।
शब्दार्थ-अगुरुलहु-अगुरुलघु, उवघायं-उपघात, परघा-पराधात, उस्सास-उच्छ्वास, आयवुज्जोयं-आतप, उद्योत, निम्माण-निर्माण, तित्थनाम-तीर्थकर नाम, चोद्दम -चौदह, अड-आठ, पिंड-पिंडप्रकृतियां, पत्त या--प्रत्येक प्रकृतियां।
__गाथार्थ-अगुरुलघु, उपघात, पराघात उच्छवास, आतप, उद्योत, निर्माण और तीर्थकरनाम ये आठ प्रत्येक प्रकृतियां हैं और पूर्वगाथा में कही गई चौदह पिंड प्रकृतियां जानना चाहिये ।
विशेषार्थ-पूर्व गाथा में चौदह पिंड प्रकृतियों को बतलाने के बाद यहाँ अप्रतिपक्षा आठ प्रत्येक प्रकृतियों के नाम बतलाये हैं। जिनके नाम और लक्षण इस प्रकार हैं
अगुरुलघु-जिस कर्म के उदय से जीवों के शरीर न तो बहुत भारी, न बहुत लघु हों और न गुरुलघु हों, किन्तु यथायोग्य अगुरुलघु परिणाम में परिणत हों, उसे अगुरुलघु नामकर्म कहते हैं।
अगुरुलघु नामकर्म का सम्पूर्ण शरीराश्रित विपाक होता है। उसके
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